________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 5 - 2 (89) 141 का एक साधारण नियम हे कि- बिना सहयोग से यह जीवन चल नहीं सकता। जीवन जीने में एक दूसरे का सहयोग अपेक्षित है। अन्यत्र कहा है कि-'परस्पर एक दूसरे को उपकारसहयोग करना यह जीवका लक्षण है।' इसलिए अपने पारिवारिक सदस्यों एवं ज्ञाति के अन्य स्नेहि-संबन्धियों के लिए मनुष्य आरंभ-समारंभ में प्रवृत्त होता है। ‘रात्रि के पूर्व सायंकाल में तथा मध्याह्न के पूर्व प्रातः किए जाने वाले भोजन को अनुक्रम से ‘समासाए' और 'पायरासाए' कहते हैं। 'संनिधि' और 'संनिचय' शब्द से क्रमश: दूध-दही आदि थोडे समय तक रहनेवाले और चीनी, गुड; अनाज-धान्य आदि अधिक समय तक स्थिर रहने वाले पदार्थो को ग्रहण किया गया है।' किसी भी सावध कार्य में प्रवृत्ति करने के तीन स्तर हैं-१. संरंभ 2. समारंभ और 3. आरम्भ। किसी इष्ट वस्तु की प्राप्ति एवं अनिष्ट पदार्थ को नष्ट करने के लिए मन में कल्पना करना उनका चिंतन करना संरम्भ कहलाता है। चिंतित विचारों को साकार रूप देने के लिए तद्योग्य साधनों का संग्रह करना समारम्भ है। और उक्त विचारों को कार्य रूप में परिणत करने के का नाम आरम्भ है। इस प्रकार विभिन्न कार्यों के लिए संरम्भ-समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्त्तमान जीव आठ कर्मों का बन्ध करता है और कर्मोदय से संसार में परिभ्रमण करता है। - अब प्रश्न यह होता है कि- ऐसी स्थिति में संयमी साधु को क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- साधु त्रि-करण और त्रि-योग से सदोष आहार का त्याग करके निर्दोष आहारादि से शुद्ध संयम अनुष्ठान में प्रवृत्ति करे। I सूत्र // 2 // // 89 // 1-2-5-2 समुट्ठिए अणगारे आरिये अरियपण्णे आरियरंसी अयंसंधि त्ति अदक्खु, से नाईए नाइयावए न समणुजाणइ, सव्वामगंधं परिणाय निरामगंधो परिव्वए // 89 // II संस्कृत-छाया : समुत्थितः अनगारः आर्यः आर्यप्रज्ञः आर्यदर्शी अयं सन्धिः इति अद्राक्षीत्, सः न आददीत, न आदापयेत्, न समनुजानीयात्, सर्वामगन्धं परिज्ञाय निरामगन्धः परिव्रजेत् // 89 // III सूत्रार्थ : समुत्थित अणगार आर्य आर्यप्रज्ञ आर्यदर्शी साधु ने यह संधिकाल है ऐसा देखा है, वह साधु अकल्प्य ग्रहण न करे, ग्रहण न करवाये, और अनुमोदन भी न करे... सर्व आमगंध की परिज्ञा करके निरामगंध ऐसा वह प्रव्रजित बने... // 89 //