________________ 142 1-2 - 5 - 2(89) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : समुत्थित याने अच्छी तरह से सतत अथवा संगत रीत से जो संयम के अनुष्ठानों में तत्पर हुआ है वह समुत्थित... अर्थात् विविध प्रकार के समारंभ से निवृत्त हुआ... तथा जिसको अगार याने घर नहि है वे अनगार... अर्थात् पुत्र पुत्री पुत्रवधू, ज्ञातिजन, धात्री आदि से रहित... तथा आर्य याने सभी त्याज्य पदार्थों एवं अशुभ क्रियाओं से दूर रहे हुए, अर्थात् चारित्र योग्य... आर्य है प्रज्ञा जिन्हों की वे आर्यप्रज्ञ... अर्थात् श्रुतज्ञान से संस्कारित बुद्धिवाले, तथा आर्य याने न्याययुक्त विशेष गुणों को देखनेवाले अर्थात् विभिन्न मिष्टान्न तथा रात्रि भोजनादि के संकल्प रहित... तथा अयं संधि याने समय मर्यादा अनुसार धर्म-अनुष्ठान करनेवाले... अर्थात् जिस क्रिया-अनुष्ठान का जो समय है, उसी समय में उस अनुष्ठान को करनेवाले... सारांश यह है कि- पडिलेहण, उपयोग, स्वाध्याय, भिक्षाचर्या, प्रतिक्रमण आदि सभी क्रियाएं परस्पर अन्योन्य एक-दुसरे को बाधा न हो वैसे अपने अपने कर्तव्य काल में करनेवाले हैं... इस कारण से कहते हैं कि- यथासमय अनुष्ठान करनेवाले हि परमार्थ को देखनेवाले होते हैं, अत: कहते हैं कि- जो आर्य आर्यप्रज्ञ आर्यदर्शी और कालज्ञ है वे हि परमार्थदर्शी होते है, अन्य नहिं... ___ पाठांतर इस प्रकार है कि- पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट साधु संधि याने कर्तव्य काल को देखनेवाला होता है... सारांश यह है कि- जो साधु परस्पर बाधा न हो उस प्रकार हित की प्राप्ति और अहित के परिहार स्वरूप कर्त्तव्यका अवसर जानता है, और कर्त्तव्यको करता है वह हि परमार्थको जाननेवाला है... अथवा भावसंधि याने ज्ञानदर्शन और चारित्रकी अभिवृद्धि, और वह वृद्धि शरीरके सिवा न हो, और वह शरीर भी आहार आदि उपष्टंभक कारणोंके बिना नहि हो सकता, और उस आहार आदि उपष्टंभक में जो सावध (सदोष) है उनका त्याग करना चाहिये, अत: यह बात अब कहतें हैं कि- वह साधु अकल्पनीय आहार आदिको ग्रहण न करें, और न अन्यों के द्वारा ग्रहण करावे, तथा अनेषणीय (आहार आदि) को ग्रहण करनेवाले अन्य की अनुमोदना भी न करें... अथवा इंगाल दोष या धूमदोषवाले आहार का भोजन न करें, न तो अन्य से करवाये, और सदोष भोजन करनेवाले अन्य की अनुमोदना न करे... अतः कहतें हैं कि- सभी प्रकार के आम याने अपरिशुद्ध (सदोष) और गंध शब्द से पूतिकर्मदोष वाला आहार आदि साधु ग्रहण न करें... प्रश्न- पूति द्रव्य भी अशुद्ध हि है, अत: आम शब्द से हि उनका ग्रहण हो जाता है, तो फिर अलग से क्यों कहा गया है ?