________________ 1401 - 2 -5 - 1 (88) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के लिये कितनेक लोग कर्म-समारंभ करतें हैं... तथा पृथक् पृथक् पुत्र आदि के हेतु प्रहेणक = मिष्टान्न के लिये... तथा श्यामा = रात्रि में भोजन के लिये, तथा प्रात: भोजन के लिये, कर्म-समारंभ करतें हैं... इस प्रकार सामान्य से कह कर अब विशेषार्थ कहते हैं- विनाशी द्रव्य याने अल्पकाल में विनष्ट होनेवाले दहि, ओदन (चावल) आदि को रखना वह संनिधि... और अविनाशी द्रव्य याने दीर्धकाल पर्यंत रहनेवाले मिसरी (सक्कर) द्राक्ष आदि का संग्रह... संनिचय... अथवा धन, धान्यं, हिरण्य (सोना-रूपा) आदि का संनिधि-संचय करतें हैं, अर्थात् इस मनुष्यलोक में अपरमार्थ बुद्धिवाले कितनेक मनुष्य भोजन के लिये धन्य धान्य आदि का संनिधि-संचय करतें हैं... इस प्रकार विविध प्रकार के शस्त्रों से शरीर एवं पुत्र आदि के लिये कर्मो के समारंभ में प्रवृत्त लोक विविध प्रकार के मिष्टान्न के लिये, शाम का भोजन एवं प्रातः भोजन के लिये तथा कितनेक मनुष्यों के भोजन के लिये संनिधि और संचय करने में उद्यत (तत्पर) होते हैं, अतः साधुओं को क्या करना चाहिये ? यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... V सूत्रसार : चतुर्थ उद्देशक में भोगेच्छा का परित्याग एवं किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देने का उपदेश दिया गया है। इससे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि- साधु अपने जीवन का निर्वाह कैसे करे ? इसी प्रश्न का समाधान प्रस्तुत उद्देशक में किया गया है। ___ संयम साधना के लिए शरीर महत्त्वपूर्ण साधन है। आध्यात्मिक साधना की चरम सीमा तक पहुंचने के लिए शरीर के माध्यम की आवश्यकता है। और उसको स्वस्थ एवं समाधियुक्त बना रखने के लिए आहार, वस्त्र, पात्र, मकान, शय्या-संथारा आदि साधन भी आवश्यक हैं। इन सब साधनों की पूर्ति गृहस्थ लोगों से होती है, अतः साधु को लोक का आश्रय लेना अनिवार्य है। परन्तु आश्रय लेने का यहां यह अभिप्राय है कि- साधक केवल संयम-साधना के निर्वाह के लिए गृहस्थों के यहां से निर्दोष आहार आदि की गवेषणा करे। इन आहाराहि को प्राप्त करते समय साधु संयम को सदा लक्ष्य में रखे। प्रस्तुत उद्देशक में यही बताया गया है कि साधक को किस विधि से आहार ग्रहण करना चाहिए। मनुष्य आरंभ समारंभ में क्यों प्रवृत्त होता है ? इसके अनेक कारणों को सूत्रकार ने स्पष्ट कर दिया है। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं। उसका जीवन समाज एवं परिवार के साथ संबद्ध है। वह अकेला नहीं रह सकता। उसे अपने जीवन का निर्वाह करने के लिए दूसरों का सहारा-सहयोग लेना-देना अनिवार्य है... यह जीवन