________________ 134 1-2-4 - 4 (87) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 4 // // 87 // 1-2-4-4 एयं पस्स मुणी ! महब्भयं, नाइवाइज्ज कंचणं, एस वीरे पसंसिए, जे न निन्विज्जइ, आयाणाए, न मे देइ न कुप्पिज्जा, थोवं लटुं न खिसए, पडिसेहिओ परिणमिज्जा, एयं मोणं समणुवासिज्जासि त्ति बेमि // 87 // II संस्कृत-छाया : एतत् पश्य हे मुने ! महाभयं, न अतिपातयेत् कञ्चन, एष: वीरः प्रशंसितः, यः न निर्विद्यते, आदानाय न मे ददाति इति न कुप्येत्, स्तोकं लब्ध्वा न निन्देत्, प्रतिषिद्धः परिणमेत्, एतद् मौनं समनुवासयेः इति ब्रवीमि // 87 // III सूत्रार्थ : हे मुनी ! इस महाभय को देखो... अत: किसी को भी न मारें... वह वीर प्रशंसनीय है... कि- जो संयमानुष्ठान से उद्विग्न नहि होता... तथा मुझे नहि देता है, ऐसा देखकर कोप न करें... थोडा आहारादि प्राप्त होने पर निंदा न करें और मनाइ करने पर वहां से वापस लौटें... तथा मुनि के इस मुनिव्रत में आत्मा को स्थापित करें इति मैं (सुधर्मस्वामी हे जंबू ! तुम्हें) कहता हुं... // 87 // IV टीका-अनुवाद : हे मुनी ! इस प्रत्यक्ष भोगोपभोगों की आशा स्वरूप महाज्वरवालों के काम की मरण पर्यंतवाली दश अवस्था स्वरूप महाभय को देखो ! मरण का कारण होने से महान् और भय का हेतु होने से दुःख... अर्थात् इस जन्म में मरण और जन्मांतर में दुःखों के कारण ऐसे इस महाभय को देखो ! जी हां ! यदि ऐसा है तो अब क्या करें ? तो अब कहते हैं किभोगोपभोग की अभिलाषा हि महाभय है, अतः भोगोपभोग के लिये कोइ भी जीव का वध न करें... यहां अहिंसा कहने से शेष व्रतों का भी ग्रहण करें... अत: किसी को भी ठगें नहिं इत्यादि... अब भोगोपभोग की इच्छा के अभाव में और प्राणातिपातविरमण आदि व्रतों में रहा हुआ मुनि कौन से गुणों को प्राप्त करता है? इस प्रश्न के उत्तर में कहतें हैं कि- भोगोपभोग की आशा एवं इच्छा का विवेक करनेवाला, अप्रमादी, तथा पांच महाव्रतों के भार को वहन करने के लिये स्कंध (कंधे) को उंचा उठाये हुए, तथा कर्मो का विनाश करने से वीर, एसे उस मुनी की देवराज = इंद्र ने प्रशंसा की है... प्रश्न- ऐसा तो कैसा वह वीर है ? कि- जिसकी प्रशंसा खुद इंद्र करतें हैं.? उत्तर- जो मुनी आदान याने संयमानुष्ठान से उद्विग्न नहि होता है... आदान याने संयम जिससे आत्म तत्त्वकी प्राप्ति हो, कि- जो आत्मतत्त्व-सभी घाति और अघाति कर्मो के क्षय