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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-4-3(86) 133 पर में भी उसे सन्तोष की अनुभूति नहीं होती, किंतु कुछ न कुछ न्यूनता खटकती रहती है। जिसे पूरा करने के लिए वह रात-दिन चिन्तित एवं उदास सा रहता है। फिर भी, वे विषय-भोग उसकी चिन्ता को, वेदना को मिटा नहीं सकते। परंतु वासना की आग को और अधिक प्रज्वलित कर देते हैं। विषय-भोग के साधन प्रज्वलित आग में मिट्टी के तेल का कार्य करते हैं। इससे तृष्णा की ज्वाला सदा बढ़ती रहती है। अतः साधक को भोगेच्छा का सर्वथा त्याग करना चाहिए। जो व्यक्ति तृष्णा एवं आकांक्षा के शल्य को आत्मा में से निकाल देता है। वह व्यक्ति वास्तविक आत्मिक सुख एवं आनन्द की अनुभूति करता है। परन्तु, जो व्यक्ति अज्ञान एवं मोह से आवृत्त है, वे ऐसा कहते हैं कि- विषयभोग एवं भोगों के साधन, धन, वैभव, स्त्री आदि सुख के स्थान हैं। परंतु ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में वे धन, वैभव आदि दु:ख के कारण देखे गये हैं। कामेच्छा-भोगाकांक्षा मोह कर्म के उदय से है। अतः विषयोपभोग में आसक्त होने से मोह कर्म की उदीरणा होती है, इससे तृष्णा एवं आकांक्षा में अभिवृद्धि होती है और उससे कर्म बन्धन होता है और परिणाम स्वरूप आत्मा अनेक तरह के नरकादि दुःखों का संवेदन करता है। यद्यपि भोग के सभी साधन मोह को बढ़ाने वाले हैं, परन्तु काम क्रीडा तो मोह को अधिक उत्तेजित करनेवाली है, इससे भोगेच्छा एवं तृष्णा को वेग मिलता है और इसकी पूर्ति के लिए स्त्री का सहयोग अपेक्षित है। इसी कारण सूत्रकार ने महामोह शब्द से इसी स्त्रीभोग के भाव को अभिव्यक्त किया है। और यह भी स्पष्ट कर दिया है कि- स्त्रीसंग से तृष्णा एवं वासना का उपशमन नहीं होता, किंतु अत्यधिक अभिवृद्धि हि होती है। अतः विषय-वासना की तृष्णा या भोगेच्छा को मोह, मृत्यु, नरक एवं तिर्यञ्च गति का कारण कहा है तथा संसार एवं दुःख की परम्परा को बढ़ाने वाली बताया है। अतः तृष्णा के भयावह परिणामों को देख-जानकर मुमुक्षु पुरुष को सदा-सर्वदा संयमित रहना चाहिए। संयम की साधना में कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिए, यह हि भगवान महावीर के धर्मोपदेश का सारांश है। ‘संतिमरणं' अर्थात् शान्ति और मरण शब्द से मोक्ष एवं संसार का अर्थ ग्रहण किया गया है। संपूर्ण कर्मों का क्षय होने पर ही आत्मा को परम शान्ति मिलती है और यह स्थिति मोक्ष में ही संभव है, इसलिए शान्ति शब्द का तात्पर्य मोक्ष है। तथा जिस स्थान में प्राणी बार-बार मरण को प्राप्त होते हैं, उसे संसार कहते हैं। अतः मोक्ष एवं संसार दोनों के स्वरूप का सम्यक्तया ज्ञान करके साधक-साधु को प्रमाद का परित्याग करना चाहिए। भोगेच्छा व्यक्ति के जीवन को दुःखमय बना देती है; इस बात को प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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