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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 3 - 6 (83) म 123 पश्यक याने जो देखता है वह पश्यक = साधु को यह उपदेश नहिं है, क्योंकि- वह तो स्वयमेव तत्वज्ञ है... अथवा पश्यति सः पश्यकः याने सर्वज्ञ अथवा उनके उपदेश में रहनेवाले साधु... उनको नारक आदि के दुःखों का कथन अथवा उच्च और नीचगोत्र आदि के कथन स्वरूप उद्देश याने उपदेश की आवश्यकता नहिं है... क्योंकि- वे तो तत्काल (थोडे हि समयमें) मुक्त होनेवाले हैं... अब उपदेश अनुसार आचरण कौन नहि करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- जो प्राणी राग आदि से मूढ है वह बाल... तथा कषाय अथवा कर्म अथवा परिषह और उपसर्गों से हतप्रभ होता है वह निह... अथवा स्नेहवाला याने कामभोगानुरागी... तथा इच्छा एवं मदन-कामविकार स्वरूप काम-भोग के पदार्थ पुन्योदय से अच्छे पाये है ऐसा... अथवा अनुराग के साथ कामभोगों का सेवन करनेवाला... अथवा काम-भोग जिसको अच्छा लगता है वह... तथा विषयों की आसक्ति से कषायों से होनेवाला दुःख जिसका शांत नहि हुआ है ऐसा... दुःख शांत न होने के कारण से शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से दुःखी... उनमें कांटे, शस्त्र और फोडे फुसी रसौली आदि शारीरिक दुःख और प्रियवियोग, अप्रियसंयोग, इच्छित का अलाभ, दरिद्रता, दौर्भाग्य और दुष्ट मन आदि मानसिक दु:ख और शरीर तथा मन का विरूप होना यह भी दुःख है... ऐसे शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से दु:खी... ऐसा दुःखी प्राणी शारीरिक एवं मानसिक दुःखों के आवर्त में बार बार घुमता रहता है... इति शब्द समाप्ति सूचक है... और ब्रवीमि पद से पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामीजी कहते हैं किहे जंबू ! श्री महावीर प्रभुजी के मुखारविंद से जो हमने सुना है वह मैं तुम्हें कहता हुं... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में तत्त्वज्ञ और अतत्त्वज्ञ या प्रबुद्ध और बाल दो बात का चित्रण किया गया है। इसमें बताया गया है कि- जो व्यक्ति तत्त्वज्ञ है, प्रबुद्ध है, उसके लिए किसी प्रकार के उपदेश की आवश्यकता नहीं हैं। क्योंकि- वह विषय-वासना से प्राप्त होने वाले कटु फल को भली-भांति जानता है, अतः वह उससे निवृत्त हो चुका है और उससे निर्लिप्त रहने के लिए अपनी संयम-साधना में सदा सजग रहता है। परिणाम स्वरूप, वह कर्म का बन्ध नहीं करता अत: वह साधु, दु:ख के प्रवाह में आर्तध्यान नहि करता... इसके विपरीत, जो वासना के कटु फल को नहीं जानता, ऐसा वह अज्ञानी व्यक्ति दुःखों का उपशमन करने के लिए विषय-भोगों का आसेवन करता है। जैसे गर्मी की ऋतु में पसीने से भीगा बालक खेलते-कूदते घर में आता है और सारे वस्त्र उतार कर पसीना सुखाने के लिए धूप में जा खड़ा होता है। वह समझता है कि- भीगे हुए वस्त्रों की तरह धूप मेरे पसीने को सुखा देगी। परन्तु परिणाम इसके विपरीत देखने में आता है, अर्थात् पसीना सूखने
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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