________________ 124 // 1-2-3-6(83) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के स्थान में अधिक आने लगता है। यही स्थिति भोगोपभोगों से दु:ख दूर करने वाले अज्ञानी जीवों की होती है। उससे दुःख कम नहीं होते किंतु दुःख अधिसाधिक बढ़ते हैं। क्योंकिदुःख का मूल कारण राग-द्वेष आसक्ति एवं मोह है, और विषय-भोग एवं भौतिक ऐश्वर्य को संप्राप्त करने के बाद भी आसक्ति एवं मोह प्रबल रहता है। अत: उस आसक्ति एवं मोह की प्रबलता से संसारी जीवों को जन्म-मरण की परम्परा में अभिवृद्धि होती है। ऐसा समझकर साधक को काम-भोगों से सदा दूर रहना चाहिए। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् ही समझें। // इति द्वितीयाध्ययने तृतीयः उद्देशकः समाप्तः // मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री. मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सानिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिए राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" / वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058.