________________ 卐१-२-3-६(८3)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जो व्यक्ति हिंसा, झूठ आदि पापों में आसक्त हैं उन व्यक्तियों को प्रस्तुत सूत्र में अनोघतर कहा है। ओघ दो प्रकार का होता है- 1. द्रव्यओघ और 2. भावओघ / नदी के प्रवाह को द्रव्य ओघ कहते हैं। और अष्टकर्म या संसार को भावओघ कहते हैं और इस संसार रूपी सागर को पार करने वाले व्यक्ति को ओघतर कहते हैं। परन्तु वही व्यक्ति इसे तैर कर पार कर सकता है, जो हिंसा आदि दोषों से मुक्त है। उक्त दोषों में आसक्त एवं प्रवृत्त व्यक्ति इसे पार करने में असमर्थ है। इसलिए सूत्रकार ने उसे अनोघतर, अतीरंगम और अपारंगम कहा है। यहां उक्त ओघ शब्द भाव ओघ अर्थात् संसार सागर के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। तीर और पार शब्द के अर्थ में इतना ही अन्तर है- 'तीर' शब्द मोह कर्म के क्षय को व्यक्त करता है और ‘पार' शब्द शेष अन्य तीन घातिकर्मों के क्षय का संसूचक है। अथवा 'तीर' शब्द से चारों घातिकर्मों का क्षय और 'पार' शब्द से चारों अघातिकर्मों का क्षय करने का अर्थ भी स्वीकार किया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि- हिंसा आदि पापों में प्रवृत्ति करने वाले व्यक्ति अष्ट कर्मों का क्षय करके संसार सागर को पार नहीं कर सकते। ___ इससे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि- यह उपदेश किस के लिए है ? प्रबुद्ध पुरुष के लिए या मूढ़ व्यक्ति के लिए ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 6 // // 83 // 1-2-3-6 ___उद्देसो पासगस्स नत्थि, बाले पुण निहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवर्ट अणुपरियट्टइ त्ति बेमि // 83 // II संस्कृत-छाया : उद्देशः पश्यकस्य नास्ति, बालः पुनः निहः काम-समनोज्ञः अशमितदुःखः दुःखी दुःखानां एव आवर्ते अनुपरिवर्त्तते इति ब्रवीमि // 83 // III सूत्रार्थ : उपदेश पश्यक को नहिं हैं, किंतु जो बाल है तथा निहत है, कामसुख को चाहनेवाला है, तथा अशमित दुःखवाला है अतः एव दुःखी वह प्राणी आवर्तों में बार बार घुमता रहता है... अत: यह उपदेश ऐसे बालजीवों के लिये हि है... ऐसा मैं (सुधर्मस्वामी हे जंबू ! तुम्हें) कहता हुं // 83 // IV टीका-अनुवाद : उद्देश याने सत् और असत् का विवेक करके कर्त्तव्य के आदेश स्वरूप उपदेश...