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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2 -3 - 4/5 (81-82) 121 है। उसकी समस्त अभिलाषाएं, भोगेच्छाएं मन में ही रह जाती हैं, सभी भोग-उपभोग के साधन यहीं रह जाते हैं। वह तो केवल कर्म बन्धन का बोझ लेकर चल पड़ता है। तथा सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र के अभाव में व्यक्ति भोगेच्छा की पूर्ति के लिए अनेक पाप कर्म करता है, विषय-वासना में आसक्त रहता है और कभी-कभी पापकर्म करने के बाद भी प्राप्त किए गए भोगों को भोग नहीं सकता। इस लिए साधक को इन भोगों से अलग रहना चाहिए। क्योंकि- विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता रहता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'ध्रुव चारिणो' का अर्थ है- “ध्रुवो मोक्षस्तत्कारणं च ज्ञानादि ध्रुवं, तदाचरितुं शीलं येषां ते'' अर्थात्- ध्रुव नाम मोक्ष का है, अत: उस के साधन ज्ञानादि साधन भी धव कहलातें हैं। उनका सम्यक्तया आचरण करने वाला ध्रवचारी कहलाता है इसके अतिरिक्त 'धूत चारिणो' पाठान्तर भी मिलता है। इसका अर्थ है- 'धुनातीति धूतं-चारित्रं तच्चारिणः' अर्थात्- कर्म रज को धुनने-झाड़नेवाले साधन को धूत कहते हैं। सम्यक् चारित्र से कर्म रज की निर्जरा होती है। अतः सम्यक्चारित्र को धूत कहा है और उसकी आराधना करने वाले मुनि को धूतचारी कहा गया है। "संकमणे दढ़े" पद का अर्थ है- संक्रम्यतेऽनेनेति संक्रमणं चारित्रं तत्र दृढः विस्रोतसिकारहितः परीषहोपसर्गे निष्प्रकम्पः।" अर्थात्- संक्रमण चारित्र का नाम है। अत: परीषह एवं उपसर्ग उपस्थित होने पर भी दृढ़ता पूर्वक चारित्र का परिपालन करनेवाले साधक को ‘संकमणे दढ़े-चारित्र में दृढ़ कहा जाता है। साधक की कसौटी परीषह के समय ही होती है। संकट के समय भी विचलित नहीं होने वाला मुनि ही आत्म साधना के पथ पर क्रमश: आगे बढ़ता रहता है। 'सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया... .... ....' आदि पाठ से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि- भगवान महावीर ने हिंसक यज्ञों का निवारण किया, और लोगों को यह बताया किसंसार का प्रत्येक जीव सुख चाहता है, दुःख सबको अप्रिय लगता है, सभी प्राणी दुःख की एवं मृत्यु की दारुण वेदना से बचना चाहते हैं, जीवन सबको प्रिय है। इस लिए प्रबुद्ध पुरुष को किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। दशवैकालिक सूत्र में भी यही बात स्वयंभवसूरिजी ने लिखी है... कुछ प्रतियों में “सव्वे पाणा पियायाया" यह पाठान्तर भी मिलता है। इसका अर्थ है- सब प्राणियों को अपनी आत्मा प्रिय है। इसका फलितार्थ यह निकलता है कि- कोई भी आत्मा अपने पर होने वाले आघात को नहीं चाहता, अतः साधक को चाहिए वह किसी भी प्राणी को पीड़ा न पहुंचाए।
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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