________________ 110 // 1-2-3-2 (79) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इसी प्रकार तत्त्वनो नहि जाननेवाला यह मूढ प्राणी कर्मेदिय से होनेवाले उच्चगोत्र एवं नीचगोत्र आदि में विपर्यास (विपरीत) भाव को प्राप्त करता है... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : संसार विभिन्न प्रकार के आकार-प्रकार युक्त शरीरधारी जीवों से भरा हुआ है। इस विभिन्नता एवं विचित्रता का कारण कर्म है। अपने कृत कर्म के अनुसार ही प्रत्येक प्राणी अच्छे या बुरे साधनों को प्राप्त करता है। इतना स्पष्ट होते हुए भी इस बात को वह हि मनुष्य जानता है, कि- जो व्यक्ति समिति-गुप्ति स्वरूप संयम से युक्त है, अन्य व्यक्ति इस बात . को सम्यक्तया नहीं जानता। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘समिए' शब्द महत्त्वपूर्ण आदर्श की और निर्देश करता है। यह प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि- किसी विषय को जानने का कार्य ज्ञान का है अर्थात् ज्ञानी व्यक्ति प्रत्येक पदार्थ को भली-भांति जान-देख लेता है तो फिर यहां ज्ञान युक्त व्यक्ति का निर्देश नहीं करके समिति युक्त व्यक्ति का जो निर्देश किया गया है, उसके पीछे गंभीर भाव अन्तर्निहत है। समिति आचरण-चारित्र का प्रतीक है। और जैनदर्शन की यह मान्यता है किसम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की समन्वित साधना से मुक्ति प्राप्त होती है। ज्ञान और दर्शन समभावी हैं। दोनों एक साथ रहते हैं, परन्तु चारित्र के संबंध में यह नियम नही है। इसलिए ज्ञान के साथ चारित्र की भजना मानी है। इसलिए ज्ञान के साथ. चारित्र हो भी सकता और नहीं भी हो सकता है। परन्तु चारित्र के साथ ज्ञान दी विद्यमानता नियमा मानी है अर्थात् जहां सम्यक् चारित्र होगा, वहां सम्यग् दर्शन और ज्ञान अवश्य ही होगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- समिति शब्द से ज्ञान और दर्शन का भी स्पष्ट बोध हो जाता है। इसलिये समिति युक्त व्यक्ति सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान युक्त होता ही है। ज्ञान विषय पदार्थ का अवलोकन मात्र करता है, आचरण नहीं। किंतु यहां सूत्रकार को केवल विषय का बोध करना ही इष्ट नहीं है, परंतु उस बोध के द्वारा जीवन में क्रियात्मक रूप देने की प्रेरणा देना है। इसलिए सूत्रकार ने ज्ञान युक्त शब्द के स्थान में समिति युक्त शब्द का प्रयोग किया है। सम्यक् प्रकार से आचरण में प्रवर्त्तमान व्यक्ति ही कर्मजन्य दोषों से अपने आपको बचा सकता है। ___ वह अपने ज्ञान से इस बात को भली-भांति जान लेता है कि- संसार में अंधे, बहिरे, मूक, काण, वामन, कुबड़े, विकृत हाथ-पैर वाले, कुष्ट आदि रोगों से पीड़ित व्यक्ति अपने