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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 3 - 3 (80) म 111 पूर्वभव में किए गए प्रमाद युक्त पापाचरण का फल पा रहे हैं। अर्थात् प्रमाद के आसेवन से आत्मा विभिन्न अशुभ योनियों में जन्म लेता है और उक्त विभिन्न प्रकार की शारीरिक विकृतियों एवं कठोर स्पर्श जन्य दु:खों का संवेदन करता है। इसलिए संयमी पुरुष को प्रमाद से बचना चाहिए, और अपनी साधना में सदा जागरुक रहना चाहिए। समिति का अर्थ है-विवेक के साथ संयम मार्ग में प्रवृत्त होना। और वह पांच प्रकार की है- 1. ईर्यासमिति, 2. भाषासमिति, 3. एषणासमिति, 4. आदाननिक्षेप समिति, और 5. उत्सर्ग समिति। 1. ईर्यासमिति विवेक पूर्वक गमनागमन करना। 2. भाषासमिति विवेक पूर्वक संभाषण करना। 3. एषणासमिति विवेक पूर्वक आहार आदि की गवेषणा करना। 4. आदाननिक्षेपसमिति - वस्त्र-पात्र आदि विवेक से रखना एवं उठाना। 5. उत्सर्गसमिति - मल-मूत्र आदि का विवेक पूर्वक उत्सर्ग करना। उक्त समिति से युक्त साधक प्रमाद एवं तज्जन्य अशुभ कर्मों के फल को भलीभांति देखकर, सदा उनसे बचने का प्रयत्न करता है। वह प्रत्येक क्रिया में सावधानी रखता है और सदा अप्रमत्त भाव से साधना पथ पर गतिशील होने का प्रयत्न करता है। अन्धत्व आदि के दो भेद किए हैं- 1. द्रव्य और 2. भाव। आंखों में देखने की शक्ति का अभाव द्रव्य अन्धत्व है और ज्ञान चक्षु का अभाव हि भाव अन्धत्व है। और उभय दोषों से आत्मा विभिन्न दुःखों एवं कष्टों का संवेदन करती है। द्रव्य अन्धत्व से वह पराधीनता के दुःख का अनुभव करती है और भाव अन्धत्व के कारण मिथ्यात्वादि बंध हेतुओं से अशुभ कर्मबंध करके नरक-तिर्यंच आदि विभिन्न योनियों में अनेक प्रकार के कष्टों का संवेदन करती है। अन्धत्व की तरह बधिरत्वादि अन्य दोषों को भी समझ लेना चाहिए। अन्धत्वादि दोषों की प्राप्ति प्रमाद से होती है। प्रमाद के कारण जीव संसार में परिभ्रमण करते है। अतः जो जीव प्रमाद के वश हिताहित में विवेक नहीं करता अर्थात् अपने अज्ञान के कारण हित को अहित एवं अहित को हित समझते हैं, उनकी जो स्थिति होती है, वह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 3 // // 80 // 1-2-3-3 . से अबुज्झमाणे हओवहए जाइमरणं अणुपरियमाणे, जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं खित्त- वत्थ-ममायमाणाणं आरत्तं विरत्तं मणिकुंडलं सह हिरण्णेण इत्थियाओ परिगिज्झति, तत्थेव रत्ता, न इत्थ तवो वा दमो वा नियमो वा दिस्सइ,
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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