________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका +1 - 2 - 3 - 2 (79) 107 गतिशील होना चाहिए। नीच गोत्र की प्राप्ति होने पर चिन्ता नहि करनी चाहिए और उच्च गोत्र की उपलब्धि पर हर्ष भी नहिं करना चाहिए। प्रत्येक प्राणी को अच्छे-बुरे पदार्थ-वस्तु शुभाशुभ कर्म के अनुसार मिलते हैं। अतः साधक किसी भी प्राणी का तिरस्कार अपमान करें और शुभाशुभकर्म के फल का विचार करके हर्ष एवं शोक का त्याग करके हर परिस्थिति में समभाव की साधना करनी चाहिए। इत्यादि यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 2 // // 79 // 1-2-3-2 समिए एयाणुपस्सी, तं जहा- अंधत्तं, बहिरतं, मूयत्तं, काणत्तं, कुंटतं, खुज्जत्तं, वडभत्तं, सामत्तं, सबलत्तं सह पमाएणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधायइ, विरूवरूवे फासे परिसंवेयइ // 79 // II संस्कृत-छाया : समितः एतदनुदर्शी, तद् यथा- अन्धत्वं, बधिरत्वं, मूकत्वं, काणत्वं, कुण्टत्वं, कुब्जत्वं वडभत्वं, श्यामत्वं, शबलत्वं, सह प्रमादेन अनेकरूपाः योनी: सन्धत्ते, विरूपरूपान् स्पर्शान् परिसंवेदयते // 79 // III. सूत्रार्थ : समितिवाला साधु यह देखता है कि- संसार में कर्मो के कारण से प्राणी अंधापन, बहेरापना, मुंगापना, काणापना, कुंटपना, कुबडापना, वडभपना, श्यामपना, और शबलपने को प्राप्त करता है और अनेक प्रकार की योनीयों में उत्पन्न होता है, निकृष्ट वहां विभिन्न प्रकार के कठोर स्पर्श-दुःखों का संवेदन करता है // 79 // IV टीका-अनुवाद : जीवों में रहे हुए शुभ और अशुभ कर्मो को देखकर, उनको जो अप्रिय है, ऐसा कार्य न करें... यह यहां उपदेश है... और नागार्जुनीय मतवाले कहते हैं कि- पुरुष याने जीव निश्चित हि दुःखों से उद्विग्न है, और सुख का अभिलाषी है... अर्थात् सभी प्राणी दुःखों से नाराज हैं और सुखों को चाहनेवाले हैं... वे जीव पृथ्वी, जल, पवन, अग्नि, वनस्पति... सूक्ष्म और बादर भेदवाले हैं... तथा विकलेंद्रिय, (बेइंद्रिय-तेइंद्रिय-चउरिंद्रिय) पंचेंद्रिय, संज्ञी और असंज्ञी वे सभी पर्याप्त और अपर्याप्त स्वरूप हैं इत्यादि प्ररूपणा शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में की है...