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________________ 106 卐१-२-3-१ (78)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन किंतु यह अभिमान पतन का कारण है, क्योंकि- इससे आत्मा में ऊंच-नीच की भावना उबुद्ध होती है। वह अपने आपको श्रेष्ठ और अन्य को हीन समझने लगता है इस परिस्थिति में अन्य जीवों के ऊपर घृणा एवं तिरस्कार की भावना उत्पन्न होती है। यह तिरस्कार की भावना पापबन्ध का कारण है। इसके फलस्वरूप आगामी भव में उसकी शक्ति का सम्यक्तया विकास नहीं हो पाता है। इसलिए साधक को अभिमान का परित्याग करना . चाहिए। और निरभिमान होकर संयम-साधना में सदा संलग्न रहना चाहिए। यही बात बताते हुए सूत्रकार ने प्रस्तुत उद्देश में कहा है, कि- संसार एक झूला है। जीव अपने कृत कर्म के अनुसार उस झूले में झूलते रहते हैं। कभी ऊपर और कभी नीचे, इस प्रकार वे विभिन्न योनियों में इधर उधर घूमते रहते हैं। उनका संसार प्रवाह चलता रहता है। जब तक कर्म के अस्तित्व को निर्मूल नहीं कर दिया जाता, तब तक संसार का प्रवाह . किसी भी अवस्था में नहीं रुक सकता / ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि आठ कर्मों में गोत्र कर्म का भी उल्लेख है। इसी कर्म के फलस्वरूप जीव विभिन्न गतियों में उच्च एवं नीच गोत्र को प्राप्त करता है। इस से स्पष्ट होता है कि- उच्च और नीच गोत्र कर्मजन्य है या यों कहिए कि- गोत्र कर्म के उदय से ही प्राणी उच्च-नीच गोत्र वाला कहा जाता है। यह उच्चगोत्र एवं नीचगोत्र की बात केवल मनुष्यों में हि है, ऐसी बात नहीं है किंतु नरक; तिर्यंच, मनुष्य और देव चारों गतियों में दोनों उच्च एवं नीच गोत्र पाए जाते हैं। संसार की समस्त योनियों में दोनों श्रेणियों के जीवों का अस्तित्व मिलता है। अतः यह उच्च एवं नीचपना गोत्रकर्म का हि फल है, क्योंकि- गोत्र कर्म में उच्चता एवं नीचता का भाव रहा हुआ है... . आगम में आठ प्रकार के मद बताए गए हैं- 1. जातिमद, 2. कुलंमद, 3. बलमद, 4. रूपमद, 5. विद्यामद, 6. तपमद, 7. लाभमद और 8. ऐश्वर्यमद। इन आठ प्रकार के भेदों में सभी तरह के मदों का समावेश हो जाता है। अतः मद अभिमान करना नीच गोत्र के बन्ध का कारण है और निरभिमान भाव में प्रवृत्त होना निर्जरा या शुभ गोत्र के बन्ध का कारण है। इसलिये शास्त्रकार महर्षि कहते हैं कि- अतः साधक को यह समझना चाहिए किप्राप्त उच्च या नीच गोत्र में हर्ष या शोक नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में जाति एवं कुल मद के त्याग का उपदेश दिया गया। परन्तु इन के साथ साथ शेष अन्य 6 मद भी त्यागने योग्य हैं, इस बात को भी समझ लेना चाहिए। इस प्रकार साधक को अभिमान का पूर्णत: त्याग करके नम्रता के साथ संयम-साधना के पथ पर
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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