________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2 -3-1 (78) // 105 कहा भी है कि- सेंकडों प्रकार के जन्म-जन्मांतरों में अपमान, स्थानभ्रंश तथा वध, बंधन और धन के विनाश से समी जीवों ने अनेक रोग एवं शोक को पाया है... कहा भी है कि- यह जीव उच्चगोत्रकर्म के उदय से उज्ज्वल छत्रवाला पृथ्वीपति चक्रवर्ती राजा होकर कालांतर में अनाथ और जीर्ण खंडेर घरों में रहनेवाला दरिद्र भी होता है... इस प्रकार अनेक जन्मों में या एक हि जन्ममें भी यह जीव उच्च-नीच इत्यादि... विविध प्रकार की अवस्थाओं का अनुभव करता है... इस प्रकार उच्च और नीच गोत्र में निर्विकल्प मनवाला यह जीव क्या करता है ? वह अब कहते हैं- जैसे कि- भूत याने तीनों काल की दृष्टि से, हैं, होएंगे और थे वे भूत याने प्राणी... अतः कुशाग्र बुद्धि से सोचकर के यह जानो कि- उनके साता याने सुख और असाता याने दुःख.के कारण कौन है ? और वे प्राणी अनिंदित ऐसा क्या चाहते हैं ? यहां जीव, जंतु प्राणी आदि उपयोग लक्षण जीवद्रव्य के मुख्य वाचक शब्दों को छोडकर जीव के लिये सत्ता-वाचक भूत शब्द का ग्रहण करके यह कहना चाहते हैं कि- यह उपयोग लक्षणवाला जीव अपनी सत्ता-स्वरूप को धारण करता हि है... और साता-सुख का अभिलाषी यह प्राणी असाता याने दुःख की निंदा भी करता है... तथा शुभ कर्म प्रकृतिवाला होने से यह प्राणी साता का अभिलाषी है... इसी प्रकार अन्य भी शुभ कर्म प्रकृतियों का यह प्राणी अभिलाषी है ऐसा समझीयेगा... अत: शुभ नामकर्म, गोत्रकर्म, आयुष्यकर्म और सातावेदनीय आदि कर्मप्रकृतियों की प्राप्ति में यह प्राणी आनंदित होता है तथा सभी प्राणी अशुभकर्म प्रकृतियों की निंदा करतें हैं... ऐसा होने पर क्या करना चाहिये ? यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : दूसरे उद्देशक में परिवार एवं धन-वैभव आदि में रही हुई आसक्ति का परित्याग करने का एवं संयम में दृढ़ रहने का उपदेश दिया गया है। संयम साधना में तेजस्विता लाने के लिए कषाय का त्याग करना आवश्यक है। क्रोध, मान, माया और लोभ की आन्धी में भी अपने पैरों को दृढ़ जमाए रखना ही संयम-साधना का उद्देश्य है। कई बार साधक क्रोध को निष्फल करता जाता है। क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर वह अपने मनमें आवेश को नहीं आने देता है और उसे जीवन व्यवहार में भी प्रकट नहि होने देता है। परन्तु अनेक बार मानवीय दुर्बलता के कारण साधक भी मान के प्रवाह में बहने लगता है। उसे अपने ज्ञान, तप, संयम-साधना या अन्य गुणों पर गर्व होने लगता है और इनके कारण वह अपने आपको अन्य साधकों से श्रेष्ठ या उत्कृष्ट समझने लगता है।