SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1 - 2 - 2 - 5 (77) 97 I सूत्र // 5 // // 77 // 1-2-2-5 * तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभिज्जा, नेव अण्णं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभाविज्जा, एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभंतं पि अण्णं न समणुजाणिज्जा, एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, जहेत्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि त्ति बेमि // 77 // II संस्कृत-छाया : तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं एतैः कार्यैः दण्डं समारभेत, नैव अन्यं एतैः कार्यैः दण्डं समारम्भयेत्, एतैः कार्यैः दण्डं समारभमाणमपि अन्यं न समनुज्ञापयेत्, एषः मार्गः आर्यैः प्रवेदितः, यथा एतस्मिन् न उपलिप्यसे इति ब्रवीमि // 77 // . II सूत्रार्थ : . उस (शस्त्र) को सभी प्रकार से जानकर मेधावी साधु स्वयं इन सावध कार्यो के द्वारा दंड का समारंभ न करें, इन कार्यों के द्वारा अन्य से भी दंड का समारंभ न करावें, और इन कार्यों के द्वारा दंड का समारंभ करनेवाले अन्य की अनुमोदना न करें... यह मार्ग आर्यपुरुषों ने कहा है, यथा इन दंड के समुपादानं में तुम उपलिप्त न हो वैसे निर्दोष संयमानुष्ठान करो... ऐसा मैं कहता हुं... || 77 // IV. टीका-अनुवाद : तत् याने शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में कहे गये स्वकाय, परकाय और उभयकाय स्वरूप शस्त्र, अथवा यहां कहे गये विषय-कषाय-मात-पितादि अप्रशस्त गुणमूलस्थान तथा कालाकालसमुत्थान, क्षणपरिज्ञान श्रोत्रादि विज्ञान की हानि तथा आत्मबल आदि की प्राप्ति के लिये दंड का समादान ज्ञ परिज्ञा से जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करनेवाला मर्यादावर्ती मेधावी साधु हेय और उपादेय का ज्ञाता होने से स्वयं खुद आत्मबलाधानादि कार्यों के हेतु से जीवों के विनाश स्वरूप दंड का समारंभ न करें, तथा इन कार्यों के हेतु से अन्यों के द्वारा भी हिंसा-जुठ आदि स्वरूप दंड का समारंभ न करावें तथा अपने आप दंड का समारंभ करनेवाले अन्य का योगत्रिक से याने मन-वचन-काया से अनुमोदन न करे... यह उपदेश तीर्थंकर परमात्मा श्री महावीर प्रभुने कहा है, ऐसा पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी अपने शिष्य श्री जंबूस्वामीजी को कहते हैं कि- यह ज्ञानादिवाला भावमार्ग अथवा योगत्रिक याने मन-वचन और काया तथा करणत्रिक याने करण करावण और अनुमोदन के द्वारा दंड के ग्रहण का त्याग स्वरूप मार्ग आर्योने कहा है... आर्य याने सभी हेय (त्याज्य) कार्यों से दूर रहनेवाले संसार समुद्र के किनारे पे रहे हुए, घातिकर्मो के सभी अंशों का क्षय
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy