________________ 96 // 1-2-2-4 (76) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दिन विषय-वासना में आसक्त रहते हैं और विभिन्न पाप कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। अपनी शारीरिक शक्ति बढ़ाने के लिए मांस-मत्स्य आदि अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करते हैं। अपनी जाति के व्यक्तियों को अनुकूल बनाने के लिए तथा अधिकारी वर्ग से कुछ काम कराने अथवा उससे अपना स्वार्थ साधने के लिए, उनकी इच्छा का पोषण करने के लिए विभिन्न प्राणियों की हिंसा करके उनके लिए भोजन-शराब आदि की व्यवस्था करते हैं। कई लोग मित्रता निभाने के लिए उसे सामिष भोजन कराते हैं। कुछ यह सोचकर कि- संकट के समय इससे काम लिया जा सकता है इसलिए उसे विभिन्न प्रकार के भोग-विलास एवं मांस-मदिरा युक्त खानपान में सहयोग देते हैं तथा साथ में स्वयं भी उसका आस्वादन कर लेते हैं। कुछ लोग परलोक को सुधारने की अभिलाषा से या इस कामना से कि- यज्ञ में बलिदान करने से मुझे स्वर्ग मिलेगा, ऐसा सोचकर यज्ञ वेदी पर अनेक मूक पशुओं का बलिदान करते हैं। कुछ लोग देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मन्दिर-मस्जिद जैसे पवित्र देवस्थानों को वधस्थल का रूप दे देते हैं। इस प्रकार अज्ञान के वश मनुष्य अनेक पापों में प्रवृत्त होता है। वह मनुष्य पाप को हि धर्म समझकर यज्ञ आदि हिंसा जन्य कार्यों में प्रवृत्त होता है। परन्तु उसकी यह समझ उतनी ही भूल भरी है जितनी कि- कीचड़ या खून से भरे हुए वस्त्र को कीचड़ या खून से साफ करने की सोचने वाले व्यक्ति की है। इन प्रवृत्तियों से पाप घटता नहीं, किंतु बढ़ता है और परिणाम स्वरूप संसार परिभ्रमण एवं दुःख परंपरा में अभिवृद्धि ही होती है। प्रस्तुत सूत्र में उपयुक्त “पावमुक्खु" में पाप और मोक्ष दो शब्दों का संयोग है। जो क्रिया प्राणी को पतन के गर्त में गिराती है या जिससे आत्मा कर्म के प्रगाढ़ बन्धन में आबद्ध होता है, उसे पाप कहते हैं। और जिस संयम-साधना से आत्मा कर्म बन्धनों से सर्वथा मुक्त होती है, उसका नाम मोक्ष है। ___'दण्ड समायाणं'-'दंड समादानं' का अर्थ है-प्राणियों की हिंसा में प्रवृत्त होना। यह पाप क्रिया आत्मा को कर्म बन्धन में फंसाने वाली है। इसमें आत्मा का संसार बढ़ता है, वह आत्मा मोक्ष से दूर होती है। अतः साधक को चाहिए कि- वह हिंसाजन्य कार्यों से एवं विषय-भोग से दूर रहे। और चित्त में अशांति उत्पन्न करने वाले कषायों का त्याग करके संयम मार्ग में गतिशील बने। यही मोक्ष का प्रशस्त मार्ग है, जिस मोक्ष-मार्ग पर गति करके आत्मा उज्ज्वल-समुज्ज्वल बनकर, एक दिन पूर्ण स्वतंत्र बन जाती है। प्रस्तुत सूत्र में बताई गई सावध क्रियाएं आत्मा के लिए अहितकर होती हैं, उसे दुःखों के अथाह सागर में जा गिराती है। इस लिए मुमुक्षु को सावध अनुष्ठानों का परित्याग कर देना चाहिए। इसी बात को अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे...