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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका म 1 - 2 - 2 - 4 (76) // 95 हैं- पापमोक्ष = पाप से मुक्ति... ऐसी पापमुक्ति मेरी हो इस समझसे वह अज्ञानी प्राणी दंड का- समादान करता है... वह इस प्रकार- छह (6) जीवनिकाय का विनाश करनेवाले शस्त्र स्वरूप अग्नि में शठ लोगों से भ्रांत मतिवाले प्राणी अपने पापों के विनाश के लिये पीपल, शमी, आदि के समिध् = लकडी और डांगर-शाल-धाणी आदि का होम (हवन) करता है तथा पितृपिंडदान आदि में बकरे आदि के मांस से बनाया हुआ भोजन ब्राह्मणों को देता है और उनके भोजन के बाद शेष बचे हुए उस भोजन को स्वयं भी खातें हैं... इस प्रकार अज्ञान से विनष्ट बुद्धिवाले प्राणी विविध प्रकार के उपायों से पाप से मुक्त होने के लिये दंड के उपादान के द्वारा जीवों का विनाश करनेवाली क्रियाओं का आरंभ करते हुए अनेक सेंकडों कोटि जन्मों से भी मुक्ति न हो ऐसे पाप का उपार्जन करता है... अथवा पितृपिंडदान से पापमुक्ति होती है ऐसा मानता हुआ दंड का आदान करता है, अथवा अप्राप्त विषय भोगों की प्राप्ति की अभिलाषा से दंड का समादान करता है... वह इस प्रकार- यह मुझे अगले वर्ष, आगे के दुसरे वर्ष अथवा जन्मांतर में यह विषय-भोग प्राप्त ओ में प्रवृत्त होता है, अथवा धन की आशा में मूढ मनवाला वह प्राणी राजा की सेवा करता है... कहा भी है कि- राजा की सेवा से धन प्राप्त करके हम हमेशा भोगोपभोगों का उपभोग करेंगें... ऐसी आशा में धनके लोभी लोगों का काल (समय) मरण तक पहुंचता है... तथा धनवाले लोग धन की आशारूप ग्रह से ग्रस्त ऐसे इच्छावाले सेवक लोगों के साथ निम्न प्रकार से क्रीडा करतें है... जैसे कि- यहां आओ, यहांसे जाओ, यहां बैठो, यहां खडे रहो, बोलो, मत बोलो इत्यादि... तो अब यह जानकर क्या करना चाहिये ? यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में जीवन के प्रशस्त और अप्रशस्त उभय स्वरूप का विश्लेषण किया गया है। जो संसार से विरक्त होकर प्रव्रजित होता है और कषायों पर विजय पाता हुआ संयम में सदा संलग्न रहता है, वह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय; मोहनीय और अन्तराय कर्म का सर्वथा क्षय करके सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता है। संसार के सभी पदार्थों को एवं तीनों काल के भावों को भली-भांति जानता-देखता है। उससे कोई भी बात प्रच्छन्न नहीं रहती है। इस स्थिति को प्राप्त करके सर्व कर्म बंधन से मुक्त होना ही प्रत्येक साधक का लक्ष्य है। राग-द्वेष का क्षय करने पर ही यह स्थिति प्राप्त हो सकती है, इसलिए राग-द्वेष एवं कषायों पर विजय प्राप्त करने तथा उक्त साधना में संलग्न रहने वाले व्यक्ति को अनगार कहते हैं। वह अनगार एक दिन कर्मबन्धनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति कषायों के प्रवाह में बहते हैं, वे मोह मूढ होकर रात
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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