________________ 94 1 - 2 - 2 - 4 (76) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अलोभ को लोभ से निंदित करता हुआ वह प्राप्त कामभोगों का उपभोग करता है... एक बार लोभ को दूर करके साधु बनकर पुनः लोभ के हि मनवाला कर्माधीन वह मनुष्य न तो जगत को वास्तविक स्वरूप से देखता है, और न जानता है... अतः सम्यक् प्रेक्षा के अभाव में वह साधु पुनः लोभ को चाहता है... यहां द्वितीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक में जो अप्रशस्तमूलगुणस्थान कहा है वह यहां कहीयेगा... वह इस प्रकार- दिन और रात परिताप पाता हुआ, काल और अकाल में कार्य करनेवाला, संयोगार्थी, अर्थ का लोभी, लुटारा, सहसाकारक और विनिविष्ट चित्तवाला वह प्राणी पृथ्वीकाय आदि को पीडा-वध होनेवाले शस्त्र के आरंभ में बार बार प्रवृत्त होता है... और वह यह सोचता है कि- इन कामगुणो से मुझे आत्मबल होगा... ऐसा सोचकर विविध प्रकार के उपायों से देह की पुष्टि के लिये इस जन्म और जन्मांतर को विफल करनेवाली विभिन्न सावद्य-पाप क्रियाएं करता है... वे इस प्रकार- मांस से मांस की पुष्टि होती है ऐसा मानकर पंचेंद्रिय प्राणीओं के वध में प्रवृत्त होता है... और भी लुट आदि पाप क्रियाएं भी करता है... ___ जैसे कि- ज्ञाति याने स्वजनों का बल मुझे प्राप्त होगा... तथा मुझे मित्रों का बल प्राप्त होगा... अर्थात् स्वजन-मित्रादि के सहकार से मैं संकट से बच जाउंगा... तथा प्रेत्यबल के लिये बकरे आदि का वध करता है... तथा देवबल की प्राप्ति के लिये देवता के आगे नैवेद्य प्रदान करूं, ऐसा सोचकर पचन-पाचन (भोजन-रसोइ) आदि सावद्य-क्रियाएं करता है, तथा राजबल के लिये राजा की सेवा करता है तथा चोरों के गाव में रहता है अथवा चोरों से भाग प्राप्त करने के लिये चोरों की सेवा करता है... अथवा अतिथिबल प्राप्त करने के लिये अतिथीओं की सेवा करता है... क्योंकि- अतिथि सदा नि:स्पृह कहा गया है... कहा भी है कि- तिथि, पर्व और उत्सवों को जिन्होने त्याग कीया है वे महात्मा अतिथि है, और शेष सभी अभ्यागत कहे हैं... यहां सारांश यह है कि- इन सभी के बल की प्राप्ति के लिये भी प्राणीओं का वध तो नहि करना चाहिये... किंतु यह अज्ञानी मनुष्य सर्वदा जीववध करता रहता है... इसी प्रकार कृपण एवं श्रमण के लिये भी समझीयेगा... इस प्रकार पूर्व कहे गये विविध प्रकार के पिंडदान आदि कार्यों में वह प्राणी दंड का समादान करता है... दंड याने जहां प्राणीओं को दंड दीया जाता है अर्थात् मारा जाता है, वध कीया जाता है वह दंड याने हिंसा... वह अज्ञानी प्राणी यह सोचता है कि- यदि मैं यह सब कुछ नहिं करुंगा तो मुझे आत्मबल आदि विविध-बल प्राप्त नहि होंगे... ऐसा सोचकर भय से बचने के लिये वह मनुष्य प्राणीओं की हिंसा करता है... यह बात अभी केवल इस जन्म के विषय में कही है... और जन्मांतर के लिये भी परमार्थ को नहि जाननेवाले वे अज्ञानी लोग दंड समादान (हिंसा) करतें हैं यह बात अब कहतें