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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 2 - 4 (76) // 93 परितप्यमान: कालाकालसमुत्थायी संयोगार्थी अर्थालोभी आलुम्प: सहसाकारः विनिविष्टचित्तः, अत्र शस्त्रं पुनः पुनः। सः आत्मबलः, सः ज्ञातिबल:, स: मित्रबल:, स: प्रेत्यबलः, स: देवबलः, सः राजबलः, स: चौरबलः, स: अतिथिबलः, सः कृपणबलः, सः श्रमणबलः, इत्येतैः विरूपरूपैः कार्यैः दण्डसमादानं सम्प्रेक्ष्य भयात् क्रियते, पापमोक्षः इति मन्यमानः, अथवा आशंसायै // 76 // III सूत्रार्थ : ___ लोभ को दूर करके प्रव्रज्या लेकर अकर्मा याने मुक्त यह आत्मा संपूर्ण विश्व को जानता है देखता है... तथा लोभ के फल को जानकर-देखकर विषयगुणो को नहि चाहता... ऐसा हि साधु, अणगार कहा जाता है... और जो प्राणी दिन और रात परिताप पाता हुआ काल और अकाल में काम करनेवाला, संयोगों की कामनावाला धन की इच्छावाला, लुटनेवाला, सहसा कार्य करनेवाला विकृत चित्तवाला साधु, पृथ्वीकायादि में बार बार शस्त्रारंभ करता है... वह ऐसा सोचता है कि- ऐसा शस्त्रारंभ करने से मुझे आत्मबल, ज्ञातिबल, मित्रबल, प्रेत्यबल, देवबल, राजबल, चोरबल, अतिथिबल, कृपणबल, श्रमणबल प्राप्त होगा इत्यादि... सोचकर इस लोक के भय से मुक्त होने के लिये विविध प्रकार के जीववधादि दंड का आचरण करता है, अथवा तो पाप से मुक्त होंगे ऐसा मानता हुआ, अथवा आशंसा से... // 76 // IV टीका-अनुवाद : कोइक भरत चक्रवर्ती आदि जैसे मनुष्य संपूर्ण रूप से लोभ का विनाश होने के बाद लोभ के अभाव में प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं... अथवा पाठांतर- संज्वलन नाम के लोभ को निर्मूल से दूर करके चार घातिकर्मो के क्षय से प्राप्त हुए केवलज्ञान से जगत को विशेष प्रकार से जानते हैं, और सामान्य प्रकार से देखते हैं... सारांश यह है कि- ऐसे पूर्व कहे गये स्वरूपवाले लोभ के क्षय से मोहनीय कर्म के संपूर्ण विनाश से घातिकर्मो का अवश्य विनाश होता है और केवलज्ञान प्रगट होता है... ऐसी स्थिति में भवोपग्राहि शेष अघातिकर्मो का भी विनाश निश्चित हि है, इसीलिये कहा है, कि- लोभ के विनाश में आत्मा अकर्मा याने मुक्त होता है... ____ यदि ऐसा दुरंत लोभ है, और इस लोभ के विनाश में अवश्य सभी कर्मों का विनाश है, तो अब क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- गुण और दोष की विचारणा से लोभ के फल = विपाक को देखकर और लोभ के अभाव में गुणों को देखकर वह साधु लोभ को नहि चाहता... और जो प्राणी अज्ञान से विनष्ट अंत:करणवाला है तथा अप्रशस्तमूलगुणस्थान में रहा हुआ है और विषय तथा कषायों से घेरा हुआ है, उस प्राणी को विपरीतता के कारण से पूर्व कहे गये संसार का स्वरूप घटित होता है... वह इस प्रकार
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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