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________________ 92 1 - 2 - 2 - 4 (76) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जिसको सुन्दर भोग-विलास एवं भौतिक सुख-साधन प्राप्त हैं और जो उनका भोग करने में भी स्वतन्त्र एवं समर्थ है, फिर भी उन्हें संसार में परिभ्रमण करने का साधन समझकर त्याग कर देता है, वह हि साधु सच्चा त्यागी कहलाता है। ऐसा त्यागी व्यक्ति लुभावने मनोज्ञ प्रसंग उपस्थित होने पर भी नहीं फिसलता, वह अलोभ के द्वारा तृष्णा के जाल को छिन्न-भिन्न कर देता है। क्योंकि- वह समझता है किसुहावने से प्रतीत होनेवाले भोगोपभोग-साधनों के पीछे दुःख का अनंत सागर लहरा रहा है। जिस प्रकार- आटे की उज्ज्वल गोली के साथ ही प्राणों को हरण करने वाले तीक्ष्ण कांटे की वेदना भी रही हुई है। किंतु यह बात वह मछली नहि जानती, अतः एव उस आटे की गोली खाने में अपने प्राणों को खो बैठती है, इसलिए वह प्रबुद्ध साधक उन विषय सुखों के क्षणिक लोभ में प्रवहमान होकर अपने आप को अथाह सागर में डूबने नहीं देता, किंतु उस तृष्णा पर विजय प्राप्त करके संसार सागर से पार हो जाता है। लोभ की तरह कषाय के अन्य तीन भेदों- १-क्रोध, २-मान, ३-माया को भी समझ लेना चाहिए। जैसे अलोभ वृत्ति से लोभ को परास्त करने को कहा गया है। उसी प्रकार क्रोध, मान और माया का प्रसंग उपस्थित होने पर, उपशम भाव से क्रोध को, विनय-नम्रता से मान को एवं ऋजुता-सरलता से माया को परास्त करे। इस प्रकार कषायों पर विजय पाने वाला विजेता ही साधना के पथ पर आगे बढ़ता है। और उसका मार्ग ही प्रशस्त मार्ग कहा गया है, कषायों के प्रवाह में प्रवहमान मनुष्य का मार्ग भयावह एवं दु:खों से भरा हुआ है। अत: अप्रशस्त मार्ग हैं... अब प्रशस्त मार्ग एवं अप्रशस्त मार्ग का स्वरूप सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 4 // // 76 // 1-2-2-4 विणइत्तु लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणइ पासइ, पडिलेहाए नावकंखइ, एस अणगारे त्ति पवुच्चइ, अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकाल समुट्ठाइ संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलुंपे सहस्साक्कारे विणिविट्ठचित्ते, इत्थ सत्थे पुणो पुणो, से आयबले, से नाइबले, से मित्तबले, से पिच्चबले, से देवबले, से रायबले, से चोरबले, से अतिहिबले, से किविणबले, से समणबले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं अकज्जेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कज्जइ, पावमुक्खुत्ति मण्णमाणे अदुवा आसंसाए // 76 // II संस्कृत-छाया : विनीय लोभं निष्क्रम्य एषः अकर्मा जानाति, पश्यति / प्रतिलेखनया (प्रत्युपेक्षणया) न अवकाङ्क्षति / एषः अनगारः इति प्रोच्यते / अहश्श रात्रिं च
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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