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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 2 - 2 (74) // 89 इस प्रकार प्रव्रज्या के वेष को धारण करनेवाले जिनमत के भी मात्र वेषधारक साधु अथवा शाक्यादि साधु प्राप्त कामभोगों को भुगततें हैं, और अन्य कामभोगों की प्राप्ति के लिये उपाय करतें हैं... यह बात अब कहतें हैं... अनाज्ञा याने स्वच्छंद बुद्धि से मुनि वेष की विडंबना करनेवाले साधु कामभोग के उपायों के आरंभ में बार बार प्रयत्न करतें हैं वह इस प्रकार... शब्दादि विषयों की आसक्ति स्वरूप अज्ञानात्मक मोह में बार बार निमग्न = डूबे रहनेवाले आत्मा के उद्धार के लिये समर्थ नहि होतें... यह बात अब कहते हैं... नो हव्वाए नो पाराए याने महानदी के पूर में डूब रहा हुआ व्यक्ति न तो इस किनारे पे आ शकता, और न तो उस किनारे पे पहंच शकता... इस प्रकार यहां संसार में भी कोइक निमित्त से घर, पत्नी, पुत्र, सुवर्ण, रत्न, कुप्य (बरतन वगैरह) और दास-चाकर आदि वैभव का त्याग करके आकिंचन्य = अपरिग्रह की प्रतिज्ञा से इस किनारे स्वरूप गृहवास के भोगोपभोगों को त्याग करके निकले... और बाद में उसी गृहवास के भोगोपभोगों के अभिलाषी बनने से यथोक्त संयम के अध्यवसाय के अभाव में संयम की क्रियाएं विफल रहती है... अत: कहते हैं किऐसा साधु उभयतः = दोनों और से भ्रष्ट है... न तो गृहस्थ है, न तो प्रव्रजित-साधु है... कहा भी है कि- इंद्रियो को न तो सुरक्षित रखी, और न तो इच्छानुसार विषयभोगों से लालनपालन की... इस प्रकार दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर न तो भोगोपभोग पाया, और न तो त्याग का सुख पाया... इत्यादि... ___जो साधु अप्रशस्त रति से निवृत्त हुए हैं, और प्रशस्तरति में लीन रहें हैं, वे कैसे होतें हैं ? यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- साधना का पथ कांटों का पथ है। उसमें त्याग के पुष्पों के साथ-साथ परीषहों के कांटे भी बिखरे पड़े हैं। अत: साधना पथ पर गतिशील साधक को परीषहों का प्राप्त होना स्वाभाविक है। परन्तु उस परिसहादि समय वह साधक साधु अपनी संयम-साधना में संलग्न रह सकता है, कि- जिसकी श्रद्धा दृढ़ है एवं जिसके पास ज्ञान का प्रखर प्रकाश है। किंतु जो साधक निर्बल है, जिसकी ज्ञान ज्योति क्षीण है, वह परीषहों की अंधड़ में लड़खड़ा जाता है। इसी बात को सूत्रकार ने स्पष्ट करते हुए बताया है कि- विवेक हीन व्यक्ति परीषहों से परास्त होकर पथ भ्रष्ट हो जाते हैं। वे विभिन्न कामभोगों में आसक्त होकर वीतराग की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए भी नहीं हिचकिचाते। ऐसे वेशधारी साधकों को “इतो भ्रष्टस्ततो नष्टः" कहा गया है। अर्थात् उन की स्थिति धोबी के कुत्ते की तरह होती है, वह न घर का रहता है और न घाट का। इसी प्रकार जो वेशधारी मुनि संयम-साधना को हृदयंगम नहीं कर सकने के कारण न तो मुनि का धर्म ही सम्यक्तया परिपालन करके उसका लाभ उठा सकते हैं, और वेष-भूषा से गृहस्थ न होने के कारण स्वतन्त्रता पूर्वक जीवन
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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