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________________ 90 1 -2-2 - 3 (75) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में विषयभोगोपभोगों का उपभोग भी नहिं कर सकते हैं। वे न तो इधर के रहते हैं और न उधर के रहते हैं, बेचारे त्रिशंकु की तरह अधर आकाश में ही लटकते रहते हैं और विषयादि कामभोग में आसक्त होने के कारण संसार की परिभ्रमणा को बढ़ाते हैं। अतः इस भवसागर से पार नहीं हो सकते। जो वीतराग देव की आज्ञानुसार आचरण करते हैं, वे ही संसार सागर से पार होते. " है। इस बात को अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 3 // // 75 // 1-2-2-3 विमुत्ता हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुगुंछमाणे लद्धे कामे नाभिगाहइ // 75 // II संस्कृत-छाया : विमुक्ता खु ते जनाः, ये जनाः पारगामिनः, लोभं अलोभेन जुगुप्समानः लब्धान् कामान् न अभिगाहते // 75 // III सूत्रार्थ : निश्चित हि वे लोग विमुक्त है, कि- जो लोग पारगामी है, अलोभ से लोभ की जुगुप्सा करनेवाले वे लोग प्राप्त कामभोगों को भी भुगततें नहिं... // 75 // IV टीका-अनुवाद : सर्वविरत साधु, द्रव्य से अनेक प्रकार के धन-स्वजन आदि के राग से और भाव से विषय एवं कषाय आदि से प्रतिसमय = निरंतर मुक्त हो रहे हैं... यहां भविष्यत्काल में भूतकाल का उपचार करके कहा है, कि- मुक्त हि नहि किंतु विविध प्रकार से मुक्त जो हैं वे विमुक्त... अत: कहते हैं कि- वे हि विमुक्त है कि- जो साधुलोग स्वजनों से निर्मम हैं, अतः एव पारगामी है... पार याने मोक्ष, संसार समुद्र का किनारा... और उस मोक्ष के कारण ज्ञान-दर्शन और चारित्र को भी कारण में कार्य का उपचार करके पार कहते हैं... जैसे किलोक व्यवहार में कहते हैं कि- मेघ तंदुल (चावल) बरसता है अत: ज्ञान-दर्शन और चारित्र स्वरूप पार को पानेवाले ऐसे पारगामी साधु विमुक्त हैं... संपूर्ण पारगामी कैसे हो ? यह बात अब कहते हैं- इस संसार में सभी संग के हेतुभूत लोभ का त्याग दुर्लभ है... क्योंकि- क्षपक श्रेणी में क्रोध, मान एवं माया कषाय के क्षय होने के बाद खंड खंड क्षय हो रहे हुओ लोभ कषाय का उदय चालु रहता है... अतः ऐसे भयानक लोभ का अलोभ (संतोष) से परिहार (त्याग) करता हुआ वह साधु पुन्योदय से प्राप्त
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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