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________________ 88 // 1-2-2 - 2 (७४)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : अनाज्ञा से स्पृष्ट कितनेक प्राणी संयम से निवृत्त होते हैं, मोह से गुंडित (घेरे हुए) मंद प्राणी कहते हैं कि- हम अपरिग्रही बनेंगे, ऐसा कहकर अपने कुमत को स्वीकार करके प्राप्त कामभोगों का आसेवन करते हैं, अनाज्ञा से वेष विडंबक साधु विषय भोगों को ढुंढतें हैं... और विषय भोगोपभोग के मोह में बार बार मग्न होते हैं... अतः वे न तो संसारी है, और न तो साधु है... // 74 / / IV टीका-अनुवाद : जो आदेश कीया जाय वह आज्ञा और वह आज्ञा हित की प्राप्ति एवं अहित के परिहार (त्याग) स्वरूप सर्वज्ञ प्रभु का उपदेश हि है... इससे जो विपरीत वह अनाज्ञा, उस अनाज्ञा से स्पृष्ट कितनेक साधु कंडरीक आदि की तरह मोहनीयकर्म के उदय से परीषह और उपसर्गों के द्वारा सभी द्वन्द्वों के उपशम स्वरूप संयम से निवृत्त होते है, परंतु सभी साधु नहि... क्योंकि- मोह के उदय से ऐसी संभावना है... कि- मोह याने अज्ञान अथवा मिथ्यात्व मोहनीय से घेरे जाने से कर्तव्य और अकर्त्तव्य के विवेक से शून्य ऐसे मंद याने जड साधु हि संयम से निवृत्त होते हैं... कहा भी है कि- क्रोध आदि सभी पापों से अज्ञान निश्चित हि कष्ट दायक है, क्योंकि- अज्ञान से घेरा हुआ जीव हित और अहित के स्वरूप को पहचान नहि शकता... इस प्रकार चारित्र प्राप्त करने के बाद साधु, कर्मो के उदय से आये हुए परीषहों के प्रसंग में पश्चात्भाव याने संसार में आता (लौटता) है... ऐसा कहा... . कितनेक साधु ऐसा कहते हैं कि- हम संसार से उद्विग्न = उभगे हुए हैं ऐसा कहकर अपनी अपनी रुचि = इच्छा अनुसार विविध क्रियाओं को करते हुए अनेक प्रकार के उपायों से लोगों के पास धन को लेने की इच्छावाले विभिन्न प्रकार के आरंभ और शब्दादि विषयों में प्रवृत्त होते हैं... यह बात अब कहते हैं... परि याने चारों और से मन, वचन और काया के प्रवर्तन के द्वारा जो ग्रहण कीया जाता है वह परिग्रह... ऐसा परिग्रह जिसके पास नहि है वे अपरिग्रही... ऐसे अपरिग्रही हम बनेंगे... शाक्य आदि मतवाले अपना यूथ (जमातसमूह) तैयार करके चीवर = वस्त्र आदिका ग्रहण करके, और बाद में प्राप्त कामभोगों का आसेवन करतें हैं... यहां वचन के व्यत्यय से बहुवचन की जगह सूत्र में एकवचन लिखा है... यहां अंतिम व्रत के ग्रहण से शेष व्रतों का भी ग्रहण करें... हम अहिंसक बनेंगे... इसी प्रकार हम अमृषावादी बनेंगे इत्यादि भी समझ लें... इस प्रकार शैलूष याने अभिनेता या नर्तकधूर्तकी तरह वे अज्ञ साधु अन्यथावादी हैं और अन्यथाकारक हैं... कहा भी है कि- अपनी इच्छानुसार शास्त्र बनानेवाले प्रव्रज्या के वेष को धारण करनेवाले क्षुद्र-साधु अनाथ की तरह विविध प्रकार के उपायों से लोक को लुंटते हैं... इत्यादि...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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