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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 2 - 2 (74) 87 गया उसी पर संतोष करके संयम साधना में संलग्न हो गया। परिणाम यह निकला कि- तपस्या से निर्बल बनी हुई कंडरीक की काया प्रकाम भोजन को पचा नहीं सकी और दुर्बल शरीर अधिक भोगों के भार को सह नहीं सका, इससे उसे असाध्य रोग हो गया और वह भोगों की आसक्ति में तड़पता हुआ मरकर नरकगति में जा पहुंचा। उधर पुंडरीक को भी अपने स्वास्थ्य के अनुकूल भोजन नहीं मिलने से वह भी अस्वस्थ हो गया। परन्तु ऐसी स्थिति में भी अपने मुनि-मार्ग में स्थिर रहा। समभाव पूर्वक वेदना को सहते हुए अनशन करके पंडित मरण को पाकर देवगति में देव-पद पाया। इस प्रकार संयम त्यागने एवं संयम स्वीकार करने के थोड़े ही समय बाद दोनों भाइयों ने देह का त्याग कर दिया, और दोनों ने उपपात योनि में जनम लिया और 33 सागरोपम की स्थिति को प्राप्त किया। योनि और स्थिति समान होते हुए भी दोनों की गति में बहुत बड़ा अंतर था। पुंडरीक ने अल्पकालीन साधना से सर्वार्थसिद्ध विमान को प्राप्त किया, तो कंडरीक ने भोगों में आसक्त होकर सातवीं नरक के अंधकार में जन्म लिया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- थोड़े से परीषहों से घबरा कर जो व्यक्ति पथभ्रष्ट होता है, वह एकदम पतन के गर्त में गिरता ही जाता है। अतः साधक को परीषहों के उपस्थित होने पर घबराना नहीं चाहिए। अनुकूल परिषहों में भी अपने पथ पर दृढ़ता के साथ गतिशील होना चाहिए। जो साधक साधु परीषहों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह कर्म बन्धनों को शिथिल करता हुआ एवं तोड़ता हुआ, एक दिन कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है। अत: वीतराग द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर गतिशील व्यक्ति हि संसार सागर से पार हो जाता है और मोक्षमार्ग में गति नहीं करने वाला प्राणी संसार सागर में परिभ्रमण करता है, विभिन्न नरंकादि गतियों में महान् दुःखों का संवेदन करता है। इस बात को अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 2 // // 74 // 1-2-2-2 आणाणाए पुट्ठा वि एगे नियहति, मंदा मोहेण पाउडा, अपरिग्गहा भविस्सामो समुट्ठाय लद्धे कामे अभिगाहइ, अणाणाए मुणिणो पडिलेहंति, इत्थ मोहे पुणो पुणो सण्णा नो हव्वाए नो पाराए // 74 // संस्कृत-छाया : अनाज्ञया स्पृष्टाः अपि एके निवर्तन्ते, मन्दाः मोहेन प्रावृत्ताः, अपरिग्रहाः भविष्यामः समुत्थाय लब्धान् कामान् अभिगाहन्ते। अनाज्ञया मुनयः प्रतिलिखन्ति (प्रत्युपेक्षन्ते), अत्र मोहे पुनः पुनः विषण्णाः , न आरातीयतीराय, न पाराय // 74 / /
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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