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________________ 841 -2 - 2 - 1 (73) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ___ आपने कहा कि- अरतिवाले मेधावी साधु को इस सूत्र से उपदेश दीया जाता है... कि- संयम में होनेवाली अरति को दूर करें... किंतु आपने हि मेधावी का स्वरूप कहा किसंसार के स्वभाव को जाननेवाला मेधावी... तो अब जो मेधावी साधु संसार के स्वभाव को जानता है वह संयम में अरतिवाला नहिं हो शकता, और यदि वह संयम में अरतिवाला है तब संसार के स्वभाव का जानकार नहि है... क्योंकि- छाया और धूप (आतप) की तरह परस्पर विरोध वाले इन दोनों का एक जगह रहना नहि हो शकता... कहा भी है कि- वह हि ज्ञान है कि- जिस ज्ञान के होने में राग आदि दोष नहिं हो शकतें... क्या- सूर्य के किरणों के आगे अंधकार को रहना संभव है ? इसलिये हम कहते हैं कि- मोह से विनष्ट चित्तवाला अज्ञानी जीव हि शब्दादि विषयों की आसक्ति से सभी द्वंद्व से पर ऐसे संयम में अरति करे... कहा भी है कि- अज्ञान से अंधे और चंचल स्त्री के भ्रूकुटी से कामविकारवाले प्राणी हि कामभोग में आसक्ति रखते हैं. अथवा विपल समद्धि को प्राप्त करने में आसक्त होतें हैं... किंतु जो महान् मोक्षमार्ग में एकाग्र चित्तवाले विद्वान् साधु हैं, वे कामभोगों में आसक्त नहिं होतें... क्या गजेंद्र = हाथी छोटे स्कंध (थड) वाले वृक्ष में अपने खंधो को घीसते हैं ? चारित्र की प्राप्ति ज्ञान के बिना नहि होती... ज्ञान का कार्य चारित्र ही है... और ज्ञान और अरति का भी परस्पर विरोध नहि है... अत: संयम में रही हुइ रति हि अरति से बाधित होती है, ज्ञान बाधित नहिं होता... इसलिये ज्ञानी को भी चारित्र मोहनीयकर्म के उदय से संयम में अरति हो शकती है, और ज्ञान तो अज्ञान का हि बाधक है, संयम में अरति का (बाधक) नहि अर्थात् ज्ञान होते हुए भी साधु को संयम में अरति हो शकती है... तथा कहा भी है कि- यथार्थवस्तु विषयक ज्ञान अपने प्रतिपक्षी अज्ञान का बाधक है, तथा ज्ञान रागादि प्रतिपक्ष (शत्रु) का विनाश स्वयं नहिं करता है किंतु हेतु बनता है... जैसे कि- दीपक (दीया) अंधकार में रहे हुए पदार्थ स्वयं नहि देखता, किंतु देखनेवाले प्राणी को वस्तु-पदार्थ को देखने में हेतु बनता है... सभी कोई अपने अपने विषय को ग्रहण करने में कर्ता है, अन्य के विषय में तो प्रासंगिक हेतु होते हैं... तथा क्या ? यह बात भी आपने नहि सुनी ? कि- इंद्रिय समूह बलवान् है... पंडित = प्रज्ञावान् साधुपुरुष भी इंद्रियों के विषयों में मूढ होतें हैं... यह बात हमने अपेक्षा से कही है... अथवा- संयम में अरति पाये हुए साधु को हम अभी यह बात नहि कहते हैं, किंतु यह उपदेश, मेधावी साधु को यह संकेत करता है कि- संयम में अरति न करें... संयम में अरति से निवृत्त साधु को कोन सा गुण प्राप्त होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- संयम में अरति से निवृत्त साधु आत्मगुण स्वरूप मोक्षसुख को प्राप्त करता है... वह इस प्रकार- क्षण याने अतिसूक्ष्म
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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