________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 1 - 2 - 2 - 1 (73) // 83 दूर करे... अरति याने चारित्र में नाराजगी... मोह के उदय से कषायों के उदय में, पंचविध आचार (पंचाचार) के आचरण में मात-पिता-पत्नी आदि से होनेवाली अरति को मेधावी = संसार की असारता को जाननेवाले बुद्धिशाली साधु दूर करें... यह बात सूत्र में कही है... कंडरीक की तरह शब्दादि विषयों में आसक्ति स्वरूप रति के बिना संयम में अरति नहिं होती... इसीलिये कहते हैं कि- विषयों की आसक्ति स्वरूप रति को दूर करें... और संयम में अरति का निवर्त्तन तब हो कि- जब पुंडरीक की तरह दशविध चक्रवाल साधु सामाचारी में रति हो... इसीलिये कहते हैं कि- संयम में रति करें, संयम में की हुइ रति मोक्षमार्ग में बाधक नहि है... क्योंकि- संयम की रति में इस जन्म के और जन्मान्तर के विषय भोगोपभोग की बुद्धि नहि है... कहा भी है कि- मोक्ष स्वरूप महान् फल के लिये नित्य उद्यमवाले साधुओं को पृथ्वी तल पे शयन, निरस भोजन, शीत आदि परीषह और क्षुद्र लोगों के तिरस्कार स्वरूप उपसर्ग मन में और शरीर में दुःख उत्पन्न नहिं करतें... ____तृण के संथारे में रहा हुआ तथा राग, मद और मोह के अभाववाला साधु, जो मुक्ति के आंशिक सुख को भी पाता है, वह सुख चक्रवर्ती को भी कहां है ?... इस विश्व में चारित्र मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त चारित्रवाले मुनी को, पुनः मोह के उदय से संसार में जाने की इच्छा हो तब इस सूत्र से उपदेश दीया जाता है... संयम = मोक्षमार्ग में से संसार की और जिस कारणों से जाना होता है, वह बात अब नियुक्तिकार स्वयं हि गाथा से कहते हैं... नि. 197 .' इस दुसरे उद्देशक में यह कहना है कि- कोइक साधु अरति के कारण से संयम में अदृढ (शिथिल) होता है, अथवा तो आत्मा में प्रगट हुए अज्ञानकर्म तथा लोभ आदि के अशुभ अध्यवसाय स्वरूप कारणों से संयम में अरति करता है... तब वह साधु शुभ अध्यवसायों के लिये इस उद्देशक को बारबार पढ़ें... . इस दुसरे अध्ययन के प्रथम उद्देशक में नियुक्ति गाथाएं बहोत सारी हैं, जब की इस दुसरे उद्देशक में यह एक हि नियुक्ति-गाथा है... कोइक कंडरीक के समान साधु, सत्तरह (17) भेदवाले संयम में, मोहनीय कर्म के उदय से अरति होने पर शिथिल हो... और मोहनीय कर्म का उदय, आत्मा में उत्पन्न होनेवाले दोषों से होता है, और वे अध्यात्मदोष अज्ञान-लोभ आदि हैं... आदि शब्द से इच्छा कामक्रीडा आदि का ग्रहण होता है... क्योंकि- मोह, अज्ञान, लोभ एवं कामविकार आदि दोष स्वरूप है, और वे आत्मा में उत्पन्न होतें है...