________________ #1-2-2-1 (73) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 . अध्ययन - 2 उद्देशक - 2 // दृढत्वम् // प्रथम उद्देशक कहकर अब दुसरे उद्देशक की व्याख्या करतें हैं... प्रथम और द्वितीय उद्देशक में परस्पर यह संबंध है कि- विषय, कषाय, मात-पितादि लोक के विजय के द्वारा मोक्ष प्राप्ति के कारण स्वरूप चारित्र की संपूर्णता को प्राप्त करना... इस द्वितीय अध्ययन का अर्थाधिकार पूर्वे कह चुके हैं... उसमें प्रथम उद्देशक में यह कहा कि- मातपितादि लोक के विजय से रोग एवं वृद्धावस्था आने के पहले हि आत्मा के हितार्थ संयम का अनुष्ठान करें... अब यह दुसरे उद्देशक में कहते हैं कि- संयम में रहे हुए कोइक साधु को कभी भी मोहनीय कर्म के उदय से अरति हो, अथवा अज्ञानकर्म एवं लोभ के उदय से आत्मा में प्रगट हुए दोषों के द्वारा संयम में शिथिलता आवे तब अरति एवं शिथिलता को दूर करके जिस प्रकार संयम में दृढता हो... यह बात इस दुसरे उद्देशक में कहेंगे... अथवा जिस प्रकार आठों प्रकार के कर्मना विनाश हो, यह बात इस अध्ययन में कहेंगे... इस प्रकार की बात अध्ययन के अर्थाधिकार में कही है, तो अब उन कर्मो का क्षय कैसे हो ? यह बात अब सूत्रों से कहते हैं... I सूत्र // 1 // // 73 // 1-2-2-1 . अरइं आउट्टे से मेहावी, खणंसि मुक्के // 73 // . संस्कृत-छाया : अरतिं आवर्तेत स मेधावी, क्षणे मुक्तः // 73 // III सूत्रार्थ : अरति को दूर करे वह मेधावी है, वह क्षण से मुक्त है... // 73 // IV टीका-अनुवाद : इस सूत्र का अनंतर पूर्व के सूत्र से यह संबंध है कि- आत्मा के हित के लिये संयम करें, उसमें कदापि अरति हो तब चारित्र के अवसर को प्राप्त करके अरति न करें... हे आयुष्यमान जंबू ! परमात्मा महावीर प्रभुजी के मुख से मैने सुना है कि- साधु अरति को