________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका १-२-२-१(७3)卐 85 काल = समय... और वह जीर्ण वस्त्र को फाडने के दृष्टांत से दर्शाया गया है, जैसे किजीर्ण वस्त्र को एक झटके से फाडने में भी एक तंतु से दुसरे तंतु को तुटने में बीच में असंख्य समय बीततें हैं... ऐसे अतिशय सूक्ष्म काल गणना स्वरूप समय याने कालक्षण से अर्थात् समय, आवलिका, मुहूर्त की गणना जहां होती है ऐसे संसार से वह साधु मुक्त होता है अर्थात् मोक्षपद पाता है... क्योंकि- सिद्धात्माओं को काल की असर नहि है... अथवा प्रथमा विभक्ति का तृतीया में परिणाम हो तब कहते हैं कि- क्षण से याने आठों प्रकार के कर्मो से अथवा शब्दादि विषयों की आसक्ति तथा अनुराग आदि स्वरूप संसार के बंधनों से पुंडरीक एवं भरत चक्रवर्ती की तरह वह साधु = संसार से मुक्त होता है... और जो साधु कंडरीक की तरह गुरुजी के उपदेश को आचरण में नहिं लाते हैं वे प्राणी, चार गति स्वरूप दुःखमय संसारसागर में डूबे रहते हैं... यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v. सूत्रसार : प्रथम उद्देशक में पारिवारिक एवं भौतिक सुख साधनों तथा धन-ऐश्वर्य आदि के मोह का परित्याग करने की प्रेरणा दी गई है। क्योंकि- पारिवारिक माया एवं संपत्ति का मोह तथा ममता का बन्धन साधना के पथ में अवरोधक चट्टान है। पारिवारिक व्यामोह एवं माता-पिता के संबन्धों की आसक्ति से ऊपर उठे विना साधक संयम साधना के पथ पर गतिशील नहीं हो सकता। स्वतन्त्रता संग्राम के समय हम देख चुके हैं कि- देश की स्वतन्त्रता के लिए सत्याग्रहियों को पारिवारिक व्यामोह से ऊपर उठना ही होता था, उन्हें घर एवं संपत्ति की आसक्ति से भी कुछ सीमा तक निश्चित हि अलग होना पड़ता था। इससे हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि- आत्म स्वातंत्र्य के लिए वासना एवं विकारों से अनवरत लड़नेवाले आध्यात्मिक सेनानियों-साधकों के लिए पारिवारिक व्यामोह से ऊपर उठना अनिवार्य है। क्योंकि- व्यामोह का त्याग किए बिना संयम में स्थिरता नहीं आ सकती। चिन्तन-मनन से प्राप्त सम्यग् ज्ञान पूर्वक आचार में प्रवृत्त होने का नाम संयम है। इसके लिए सबसे पहले चिन्तन में सात्त्विकता का आना जरूरी है और वह योगों की एकाग्रता पर आधारित है। और जब तक साधक पारिवारिक व्यामोह से आबद्ध है, तब तक उसके योगों में एकाग्रता आ नहीं पाती। क्योंकि- उसके सामने अनेक समस्यायें मुंह फाड़े खड़ी रहती हैं, कभी मन किसी समस्या से उलझा हुआ है तो वचन का प्रयोग किसी और ही पहलू को हल करने में लगा रहा है और शरीर किसी तीसरे कार्यमें ही व्यस्त है। इस प्रकार तीनों योगों की विभिन्न दिशाओं में दौड़ धूप होती रहने से, उनमें एकाग्रता नहीं आ पाती। अत: योगों की एकाग्रता के अभाव में चिन्तन में सात्त्विकता एवं ज्ञान तथा आचार में तेजस्विता नहीं आ पाती है। अतः संयम की साधना के लिए, साधना के मूल चिन्तन में सात्त्विकता एवं ज्ञान में निर्मलता लाने के लिए पारिवारिक व्यामोह का त्याग करना अनिवार्य है।