________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-२-१-९ (71), 77 जीवों को यह भावक्षण होता है... - मिथ्यात्व मोह की ग्रंथि के पास रहे हुए भव्यजीव और अभव्य जीवों की विशुद्धि से अनंतगुण विशुद्धि से विशुद्ध होनेवाला, मति, श्रुत और विभंगज्ञान में से कोई भी साकार उपयोगवाले तथा तेजो, पद्म और शुक्ल इन तीन शुभ लेश्याओं मे से कोई भी लेश्यावाले तथा अशुभकर्मो के चार स्थानवाले रसको दो स्थानवाला बनानेवाले तथा शुभ कर्मो के दो स्थानवाले रस को चार स्थानवाला बनानेवाले तथा ऐसे हि शुभ कर्मरसबंध को बांधनेवाले तथा भवप्रायोग्य ध्रुवबंधिकर्म प्रकृतीयां तथा परिवर्तमान कर्मप्रकृतीयां को बांधनेवाले जीव हि मोहग्रंथि को भेदकर सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं... ध्रुवबंधिकर्मप्रकृतियां 47 हैं... और वे यह- पांच ज्ञानावरणीय - 5, नव दर्शनावरणीय - 5 + 9 = 14, मिथ्यात्व मोहनीय - 15, सोलह कषाय - 15 + 16 = 31, भय - 32, जुगुप्सा - 33, तेजस - 34 और कार्मण शरीर - 35 तथा वर्ण - 36, गंध - 37, रस - 38, स्पर्श - 39, अगुरुलघु - 40, उपघात - 41, निर्माणनामकर्म - 42 तथा पांच अंतरायकर्म - 42 + 5 = 47... यह ध्रुवबंधिकर्म अपने अपने बंधस्थानक पर्यंत सदा बद्धयमान होते रहते हैं.... मनुष्य और तिर्यंच में कोइ भी जीव, सर्व प्रथम सम्यक्त्व को प्रगट करती वख्त यह परिवर्तमान इक्कीस (21) कर्म प्रकृतीयां बांधतें हैं... वे इक्कीस कर्म इस प्रकार हैं- 1. देवगति और 2. आनुपूवी, 3. पंचेंद्रियजाति, 4. वैक्रिय शरीर और 5. अंगोपांग, 6. समचतुरस्रसंस्थान, 7. पराघात, 8. उच्छ्वास, 9. शुभ विहायोगति, 9 + 10 = 19. त्रस दशक , 20. साता वेदनीय और 21. उच्चगोत्र... ___ यहां देव और नारक - मनुष्यगति एवं आनुपूर्वी, प्रथम संघयण के साथ शुभ कर्म बांधतें हैं, तथा तम:तमा नामक सातवी नरक के नारकजीव तिर्यंचगति और आनुपूर्वी तथा नीचगोत्र के साथ परावर्त्तमान कर्म बांधते हैं... इस प्रकार ऐसे अच्छे अध्यवसायवाले जीव आयुष्यकर्म को नहिं बांधा हुआ यथाप्रवृत्ति कारण के द्वारा ग्रंथिप्रदेश में आकर अपूर्वकरण के द्वारा मिथ्यात्व की ग्रंथि को भेदकर तथा सत्ता में रहे हुए मिथ्यात्व के दलिकों का अनिवृत्तिकरण के द्वारा अंतरकरण करके सम्यक्त्व को प्राप्त करतें हैं, उसके बाद चारित्रमोह कर्म का विशेष क्षयोपशम होने से, और शुभ अध्यवसाय के कंडकों की वृद्धि होने से जीव को देशविरति एवं सर्वविरति चारित्र का अवसर तिर्यंच एवं मनुष्य को प्राप्त होता है... यह कर्मभावक्षण का स्वरूप कहा... अब नोकर्मभावक्षण का स्वरूप कहते हैं... नोकर्मभावक्षण याने- आलस्य, मोह, अवर्णवाद (निंदा) अभिमान आदि दोषों के