________________ 76 1 - 2 - 1 - 9 (71) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ! पंडित ! मुनिराज ! अवसर को जानो... अथवा संयम में खेद पानेवाले साधु को संयमपंचाचार के लिये प्रोत्साहन देते हुए कहते हैं कि- हे यौवनउम्र वाले ! निंदा आदि तीन दोष रहित ! हे पंडित ! मुनिराज ! द्रव्य क्षेत्र काल एवं भाव भेदवाले अवसर को जानो-समझो... वह इस प्रकार- द्रव्यक्षण = द्रव्य स्वरूप अवसर... जैसे कि- त्रस, पंचेंद्रिय, विशिष्ट जाति, विशिष्ट कुल, रूप, बल, आरोग्य एवं दीर्घ आयुष्यवाला यह मनुष्य जन्म, संसार समुद्र तैरने में समर्थ चारित्र के लिये हि तुमने प्राप्त कीया है... ऐसा मनुष्य जन्म अनादिकाल के इस संसार में परिभ्रमण करनेवाले जीवों को अतिशय दुर्लभ है... और अन्य तिर्यंच नरक एवं देव जन्म में यह चारित्र प्राप्त नहिं होता है... वह इस प्रकार- देव एवं नरक जन्म में सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक हि प्राप्त हो शकतें हैं तथा तिर्यंच जन्म में कोइक जीव को देशविरति सामायिक भी प्राप्त होता है... किंतु मोक्ष के कारण स्वरूप सर्वविरंति सामायिक तो मात्र मनुष्य जन्म में हि प्राप्त होता है... क्षेत्रक्षण याने क्षेत्र स्वरूप अवसर... जिस क्षेत्र में चारित्र प्राप्त हो वह क्षेत्रक्षण है... और वह क्षेत्र सर्वविरति चारित्र = सामायिक प्राप्ति का क्षेत्र अधोलोक के अधोग्राम सहित तिर्यक्-क्षेत्र हि है... और उनमें भी अढाइ द्विप-समुद्र... उनमें भी पंद्रह कर्मभूमीयां... और उनमें भी भरतक्षेत्र की अपेक्षा से साढे पच्चीस (25.1/2) आर्यदेश इत्यादि... क्षेत्र क्षण है... अन्य क्षेत्र में सम्यक्त्व समायिक एवं श्रुतसामायिक हि होतें हैं... कालक्षण = काल स्वरूप अवसर... वह कालक्षण-अवसर्पिणीकाल के सुषमदुष्षम, दुष्षमसुषम और दुष्षम नाम के तीन आरे में तथा उत्सर्पिणी काल के तीसरे एवं चौथे आरे में सर्वविरतिसामायिक स्वरूप चारित्र होता है... यह बात प्रतिपद्यमान याने स्वीकार = आरंभ की दृष्टि से कहा है, किंतु पूर्व-प्रतिपन्न की दृष्टि से तो तिर्यग्-ऊर्ध्व और अधोलोक में तथा सभी काल में सर्वविरति चारित्र होता है... भावक्षण के दो प्रकार है... 1. कर्मभावक्षण और 2. नोकर्मभावक्षण... उनमें कर्मभावक्षण याने कर्मो के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय में से कोई भी भाव की प्राप्ति का अवसर... उनमें भी उपशमचारित्र क्षण = उपशम श्रेणी में चारित्रमोह का उपशम होने पर अंतमुहूर्त काल प्रमाण औपशमिक चारित्रक्षण होता है... तथा इसी चारित्रमोह के क्षय से अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र क्षण क्षीणमोह नाम के बारहवे गुणस्थानक में होता है... और क्षयोपशम चारित्र क्षण चारित्रमोह के क्षयोपशम से होता है... और वह उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि वर्ष पर्यंत होता है... तथा सम्यक्त्व सामायिक का क्षण=अवसर तो मध्यम स्थिति के आयुष्यवालों को होता है... और शेष कर्मो में पल्योपम के असंख्येय भाग न्यून अंत:कोडाकोडिसागरोपम स्थितिवाले