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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-1-7 (69) // 73 बचा नहि सकतें है। इसलिए मुमुक्षु पुरुष को धन-वैभव के संग्रह में आसक्त न होकर वेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त कष्ट को समभाव पूर्वक सहन करके, उदयागत कर्म को क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिए, रोग आदि दुःख एवं वेदना के समय किस तरह समभाव रखना चाहिए, इस बात को अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 7 // // .69 // 1-2-1-7 जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं // 69 // II संस्कृत-छाया : ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं, सातम् // 69 // III सूत्रार्थ : प्रत्येक प्राणी के दुःख एवं साता को जानकर मुनी संवरतत्त्व का आदर करता है... IV टीका-अनुवाद : प्रत्येक प्राणीओं के दुःख और साता (सुख) को जानकर साधु, दीनमनवाला हुए बिना ज्वर आदि की अवस्था में अपने कीये हुए कर्मफल अवश्य भुगतना हि है, ऐसा मानकर आकुल-व्याकुलता न करें... कहा भी है कि- हे जीव ! कोई विकल्प कीये बिना तुं उदयागत कर्मो के दुःखों को सहन कर... क्योंकि- तुझे फिर से स्वाधीनता मिलनी दुर्लभ है... और हे जीव ! तुंने पराधीन दशा में तो बहोत दुःख सहन कीये है और सहन करेगा... किंतु ऐसी पराधीन स्थिति में तुझे कोइ गुण-लाभ प्राप्त नहिं होगा... अतः जब तक श्रोत्र आदि इंद्रियो का ज्ञान क्षीण होनेवाली वृद्धावस्था की उपस्थिति न हुइ हो तब तक आत्मा के हितकर कार्य में अवश्य उद्यम कर लेना चाहिये... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : साता और दुःख दोनों एक ही कर्म-वृक्ष के फल है। वह वृक्ष है-वेदनीय कर्म। यह प्रश्न हो सकता है कि- एक ही पेड़ के दो विपरीत गुण वाले फल कैसे हो सकते हैं ? उत्तरइसमें कोइ आश्चर्य जैसी बात नहीं है क्योंकि- वेदनीय कर्म रूपी वृक्ष की दो शाखाएं हैं- एक शुभ और दूसरी अशुभ और उन दोनों शाखाओं से उभय रूप फल प्राप्त होते हैं, जबकि
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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