________________ 72 // 1-2-1-6 (६८)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सेडुक नाम के पुरुष की तरह... वह प्राणी भी स्वजनों का त्याग करता है... अब वे स्वजन आदि लोग, रोग अवस्था में तुमको छोड दे, या न भी छोडे तो भी वे तुम्हारे त्राण एवं रक्षण के लिये समर्थ नहि है... . अब यहां यह प्रश्न होता है कि- रोग आदि विषम अवस्था में त्राण के अभाव में रोग की पीडा समभाव से सहन हो उसके लिये किसका आलंबन लेना चाहिये... ? इस प्रश्न का उत्तर अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : मोह कर्म के उदय से प्रमादी प्राणी भौतिक पदार्थों में आसक्त रहते हैं। वे उन पदार्थों को अपने भोगोपभोग का साधन एवं विपत्ति में सहायक के रूप में समझते हैं। इसलिए वे जीवन में धन-वैभव आदि को महत्त्व देते हैं और उसके संग्रह में रात-दिन लगे रहते हैं तथा अनेक प्रकार के पाप कार्य करने में भी संकोच नहीं करते। वे समझते हैं कि- यह धन मेरे एवं मेरे पुत्र-पौत्र आदि के भोगोपभोग के लिये उपयोग में आएगा, परन्तु, वे यह नहीं सोचते कि- जब एक लोही के संबंध में आबद्ध परिजन भी एक-दूसरे को दुःख में शरण नहीं दे सकता, तब यह जड़ द्रव्य-धन सहायक कैसे होगा ? यही बात प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट रूप से समझाई गई है। सूत्रकार ने बताया है किधन का प्रभूत संचय किया हुआ है, परन्तु असाता-वेदनीय कर्म के उदय से असाध्य रोग ने जब आ घेरा उस समय वह धन एवं वे भोगोपभोग के साधन उसके दुःखों को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे। धन-वैभव से सनाथता एवं श्रेष्ठता को मानने वाले मगधाधिपति श्रेणिक को भी अनाथी मुनी ने अनाथ बताया था, इसमें सच्चाई है, वास्तविकता है। अनाथी मुनि ने वैभव की निस्सारता का चित्र उपस्थित करते हुए सम्राट श्रेणिक से कहा था किहे राजन् ! मेरे पिता अगणित, धन-ऐश्वर्य के स्वामी थे, भरापूरा परिवार था। सुशील, विनीत एवं लावण्यमयी नवयौवना पत्नी थी। परन्तु जिस समय मेरे शरीर में दाह-ज्वर उत्पन्न हो गया। मैं दिन-रात ज्वर की आग में जलता रहा; मैं ही नहीं मेरा सारा परिवार आकुल व्याकुल हो गया, पत्नी रात-दिन आंसू बहाती रही, पिता ने मेरी वेदना को शांत करने के लिए धन को पानी की तरह बहाना आरम्भ कर दिया, फिर भी हे राजन् ! वह धन, वह परिवार मेरी वेदना को शांत नहीं कर सका, मुझे शरण नहीं दे सका, इस लिए में उस समय अनाथ था। मैं ही नहीं, भोगों में आसक्त सारा संसार ही अनाथ है क्योंकि- यह भोगोपभोग, दुःख एवं संकट के समय किसी के रक्षक नहीं बनते... यहां यह स्पष्ट है कि- रोग के आने पर वह द्रव्य धन-संपत्ति, उसे असाता वेदनीय कर्म या दुःख की संवेदना से बचा नहि सकता है और उसके संरक्षक माता-पितादि भी उसे