________________ 74 1 - 2 - 1 - 8 (70) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दोनों का मूल वेदनीय कर्म एक ही है। इस तरह साधक साता और दुःख रूप उभय फलों को वेदनीय कर्मजन्य जानकर समभाव पूर्वक संवेदन करे। न साता में आसक्त बने और न दुःख में हाहाकार करे, परन्तु अपने किए हुए कर्म के फल समझकर उपशमभाव के साथ उनका संवेदन करे। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'जाणित्तु' और 'पत्तेयं' शब्द बड़े महत्त्व पूर्ण हैं। 'जाणित्तु' पद से यह अभिव्यक्त किया है कि- प्रत्येक वस्तु को पहले जानना चाहिए। क्योंकि- ज्ञान के बिना कोई क्रिया नहीं हो सकती। अतः दुःख में समभाव की साधना भी ज्ञान युक्त व्यक्ति ही कर सकता है। और ‘पत्तेयं' से यह बताया है कि- दुनिया में सर्वत्र व्यापक एक हि आत्मा नहीं, किंतु इस विश्व में अनंत-अनेक आत्माएं हैं और उन सब आत्माओं का अपना स्वतंत्र अस्तित्व रहा हुआ है। इसके अतिरिक्त 'दुक्खं' और 'सायं' शब्दों से यह स्पष्ट कर दिया है कि- प्रत्येक संसारी आत्मा को प्राप्त साता और दुःख उसके कृत कर्म के फल है, व्यक्ति पापाचरण से अशुभ कर्मों का बन्ध कर के दु:खों को प्राप्त करता है और पून्यकार्यों में प्रवृत्त होकर शुभ कर्म बन्ध से सुखसाता को उपलब्ध करता है। अतः साधक को प्राप्त दुःख एवं वेदना में घबराना नहीं चाहिए, किंतु समभाव पूर्वक उसे सहन करना चाहिए। इसी बात को अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 8 // // 70 // 1-2-1-8 अणभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए // 70 // II संस्कृत-छाया : अनभिक्रान्तं च खलु वयः संप्रेक्ष्य // 70 // III सूत्रार्थ : अभी निश्चित हि उम्र अभिक्रांत नहि हुई है, ऐसा देखकर आत्महित करें... // 70 // IV टीका-अनुवाद : पहले ऐसा कहा कि- प्राणी जरा याने वृद्धावस्था या मरण से अभिक्रांत हुइ उम्र को देखकर मूढता को धारण करता है, अब कहते हैं कि- अनभिक्रांत आयुष्य को देखकर प्राणी आत्महित के कार्य करे... प्रश्न- कया ? उम्र अतिक्रांत न हुइ हो ऐसा हि प्राणी आत्महितकर