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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 1 - 5 (67) 5 69 III सूत्रार्थ : - जो लोग इस जीवित में प्रमादी हैं... वह प्राणीओं का वध करता है, छेदन करता है, भेदन करता है, लुटता है, प्राणों का नाश करता है, त्रास देता है, अन्य ने जो कार्य नहिं कीया वह कार्य मैं करुंगा ऐसा मानता हुआ... जिन्हों के साथ रहता है, वे आत्मीय लोग एकदा पहले उसका पोषण करतें है, एवं वह भी पुरुष उन आत्मीय लोगों का बाद में पोषण करे... किंतु वे लोग तुम्हारे त्राण एवं शरण के लिये समर्थ नहि होतें, और तुम भी उनके त्राण एवं शरण के लिये समर्थ नहि होते हो... // 67 / / IV टीका-अनुवाद : जो लोग उम्रका बीतना नहि जानतें वे इस असंयम जीवित में मग्न हुए विषय-कषायों में प्रमाद करते हैं, प्रमादी ऐसे वे दिन-रात संताप पाते हुए काल और अकाल में जीवों के वध होनेवाली क्रियाओं का आरंभ करतें हैं, इसीलिये कहते हैं कि- अप्रशस्त गुणमूलस्थानवाला विषयाभिलाषी प्रमादी ऐसा वह प्राणी स्थावर और जंगम जीवों का वध करता है, यहां बहुवचन का प्रस्ताव होते हुए भी जाति की अपेक्षा से एकवचन का निर्देश कीया है.... तथा प्राणीओं के कान, नाक आदि का छेदन करतें हैं, मस्तक, आंखे और उदरपेट आदि का भेदन करतें हैं, ग्रंथि के छेद (चोरी) आदि के द्वारा लुंटते हैं, और गांव एवं नगर के विनाश स्वरूप विशेष प्रकार से लुंटते हैं, विष (जहर) और शस्त्र आदि से जीवित का नाश करते हैं, और पत्थर के फेंकने के द्वारा जीवों को त्रास देते हैं... प्रश्न- वह प्राणी जीववध आदि क्रियाएं क्यों करता है ? उत्तर- अन्य लोगों ने जो कार्य नहिं कीया है, ऐसा कार्य मैं करुंगा ऐसा सोचता हुआ वह मनुष्य धन की प्राप्ति के लिये जीववध आदि क्रियाओं में प्रवृत्त होता है... अतिशय क्रूर कर्मों को करनेवाला वह मनुष्य समुद्रलंघन आदि क्रियाओं को करता हुआ भी अलाभ-कर्म के उदय से सभी धन का विनाश होने से कैसा होता है ? यह बात अब कहतें हैं... यहां “वा" शब्द भिन्नक्रम अथवा अन्य विकल्प का सूचक है... वह मनुष्य जिस मात-पिता स्वजन आदि के साथ रहता है, वे आत्मीय बंधुजन अथवा मित्र आदि सभी, शिशु अवस्था में उसका पोषण करतें हैं, और मन चाहा भोगोपभोग प्राप्त होने से वह मनुष्य भी बाद में धन की प्राप्ति से उन आत्मीय लोगों का धन-वस्त्र आदि के द्वारा पोषण करता है... किंतु वे पोषक या पोष्य स्वजन संसार में रहे हुए तुम्हारे त्राण के लिये समर्थ नहि है... "ते" याने आत्मीय मात-पितादि... “तव" याने सन्मुख रहा हुआ * उपदेश योग्य प्राणी... त्राण याने आपदाओं से रक्षण तथा शरण याने निर्भय स्थिति के लिये समर्थ नहि है, और तुम भी उनके त्राण एवं शरण के लिये समर्थ नहि हो...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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