________________ 68 1 -2-1 - 5 (67) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 3 प्रस्तुत सूत्र में इसी मूल स्थान की और निर्देश किया गया है कि- उसे पूर्व जन्म के पुण्य एवं ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षयोपशम से जो आर्य क्षेत्र, शुद्ध आचारयुक्त कुल एवं सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप धर्म साधन उपलब्ध हुए हैं, अत: आत्म विकास में उनका उपयोग करने में मनुष्य को प्रमाद नहीं करना चाहिए। क्योंकि- यौवन एक तरह से कल्प वृक्ष है, वह सब कामनाओं को पूरी करने में समर्थ है। इससे अर्थ और काम रूप विष भी प्राप्त किया जा सकता है और धर्म एवं मोक्ष रूप अमृत भी और विषय एवं अमृत दोनों के अशुभ एवं शुभ परिणाम दुनिया के सामने हैं। अतः बुद्धिमान व्यक्ति वही है, जो विष की ज्वाला से अपने आपको बचाते हुए अमृत समान धर्म पथ पर गति करता है। यदि कभी वह गृहस्थ जीवन में अर्थ और काम के पथ पर बढ़ता है, तब भी धर्म और मोक्ष की भावना को साथ लेकर गति करता है, यों कहना चाहिए कि- उसका भोग, त्याग प्रधान होता है। वह काम की अंधेरी गुफा में भी धर्म एवं त्याग का प्रकाश लेकर प्रविष्ट होता है, तब वहां भी वैराग्य मार्ग पा लेता है। अतः इस यौवन के सुनहरे क्षणों को व्यर्थ न खोकर; मनुष्य को अप्रमत्तभाव से धर्म-ध्यान में संलग्न रहना चाहिए। आत्म ज्ञान का प्रकाश उस मनुष्य को इधर-उधर की ठोकरों से बचाता है। जो व्यक्ति आत्मज्ञान से शून्य होकर काम-वासना में संलग्न रहते हैं, वे विषय-वासना के बिहड़ एवं भयावने जंगल में भटक जाते हैं। वे अज्ञानी व्यक्ति अनेक दुष्प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होकर जीवन के सुनहरे समय को यों ही बर्बाद कर देते हैं। इसी बात को विशेष प्रकार से सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 5 // // 67 // 1-2-1-5 जीविए इह जे पमत्ते, से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुपित्तां उद्दवित्ता उत्तासइत्ता, अकडं करिस्सामि त्ति मण्णमाणे, जेहिं वा सद्धिं संवसइ, ते वा णं एगया नियगा तं पुव्विं पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसिज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमं पि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा // 67 // II संस्कृत-छाया : जीविते इह ये प्रमत्ताः, सः हन्ता, छेत्ता, भेत्ता, लुम्पयिता, विलुम्पयिता, अपद्रावयिता, उत्-त्रासयिता, अकृतं करिष्यामि इति मन्यमानः यैः वा सार्द्ध संवसति, ते वा (णं इति वाक्यालंकारे) एकदा निजकाः तं पूर्वं पोषयन्ति, स: वा तान् निज़कान् पश्चात् पोषयेत्, न अलं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा, त्वं अपि तेषां न अलं त्राणाय वा शरणाय वा // 67 //