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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका // 1-2 - 1 - 4 (66) 67 ' अब जो प्राणी संसार के अनुरागी है, वे असंयमवाले जीवन को हि अच्छा मानतें है... तो उनका क्या होता है ? यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : जीवन सदा परिवर्तनशील हैं, वह सदा एक-सा नहीं रहता है। प्रायः चिन्ताओं, उलझनों से युक्त, यौवन का सुनहरा प्रवाह जब बह निकलता है और बुढ़ापे की कालिमा उसे आ घेरती हैं। उस समय कोई भी स्नेही-साथी उसके दुःख को दूर करने में समर्थ नहीं होता। इस बात को सम्यक्तया जानकर एवं समझकर विवेकशील व्यक्ति को धर्म एवं संयमसाधना पथ पर गति करने में जरा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। - इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि- जीवन में धर्म-सदाचार ही एक मात्र सहायक है। क्योंकि- धर्म से पाप कर्मों का नाश होता है और सम्यग ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की ज्योति प्रज्वलित होती है, चिन्तन-मनन में स्थिरता आती है, आचार में तेजस्विता आती है। संकल्पविकल्प का वेग अल्प होता है, आर्त्त-रौद्र ध्यान की धारा धर्म ध्यान या शुक्ल ध्यान में बदल जाती है। इससे आत्मा में अपूर्व तेज एवं शक्ति की अनुभूति होती है और आत्मा सारे दु:खों एवं वेदनाओं से ऊपर उठकर आत्म सुख के अनन्त आनन्दमय झूले में झूलने लगती है। अशुभ कर्मजन्य दु:ख के तापवाली दुपहरियों में भी वह साधु संवर भाव स्वरूप आत्म सुख की शीतल, सरस, सघन एवं सुखद कुञ्ज में विहार करता है। इसलिए कहा गया है कि- मनुष्य को जीवन की अस्थिरता को भली-भांति जान कर वृद्धावस्था आने से पहले ही सावधान हो जाना चाहिए और जरा एवं मृत्यु स्वरूप शत्रुओं को परास्त करने के लिए अहिंसा, सत्य आदि आध्यात्मिक शस्त्रों को प्रबल एवं तीक्ष्ण बनाने के लिए अनवरत अप्रमत रहना चाहिए अथवा संयम साधना में क्षण मात्र के लिए भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। यह हम देख चुके हैं कि- वृद्धावस्था में शरीर एवं इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है। उस समय जीवन संबन्धी अनेक चिन्ताएं एवं अनेक मानसिक और शारीरिक व्याधियां उसे निरूत्साह बनाती हैं, ऐसे समय में उसका मन तत्त्व चिन्तन-मनन एवं धर्म साधना में लगना कठिन है। उस समय वह जीवन की चिन्ताओं के बोझ से इतना दब जाता है कि- दुःख के अतिरिक्त उसे कुछ सूझता ही नहीं। इसलिए सर्वज्ञों ने मानव को सावधान करते हुए कहा है कि- धर्म एवं साधना करने के लिए सपय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि- किसे पता है कि- कौन सा समय, कौन सा क्षण उसके लिए काल के रूप में आ उपस्थित हो। अतः मनुष्य को आने वाले प्रत्येक समय को काल का, मृत्यु का दूत समझ कर उसे सफल बनाने में प्रयत्नशील रहना चाहिए।
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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