________________ 66 // 1-2-1-4 (६६)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : इत्यादि ऐसी वृद्धावस्था जानकर संयमानुष्ठान के लिये अच्छी तरह से उठकर... और अन्य को निश्चित हि संयम में खेद पाते हुए देखकर धीर पुरुष क्षण मात्र भी प्रमाद न करे, क्योंकि- उम्र बीतती है, और यौवन भी बीतता है // 67 // IV टीका-अनुवाद : अथवा इस प्रकार वे मित्र आदि स्वजन-लोग त्राण एवं शरण के लिये समर्थ नहिं है, तो अब क्या करें ? इस प्रश्न के अनुसंधान में कहतें हैं कि- अप्रशस्त मूलगुणस्थान में रहा हुआ प्राणी वृद्धावस्था में न हसने योग्य है, न खेलने योग्य है, न कामक्रीडा के योग्य . है, और न तो विभूषा के लिये योग्य है, क्योंकि- प्रत्येक जीव को अपने कीये हुए शुभ एवं अशुभ कर्मो के फल खुद अपने को हि भुगतना होता है ऐसा जानकर शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में कहे गये मुलगुणस्थान में रहा हुआ साधु अहोविहार = यथोक्त संयम के अनुष्ठान के लिये, अच्छी तरह से उठकर = सावधान होकर एक क्षण भी प्रमाद न करे... तथा तप एवं संयम आदि में खेद पानेवाले साधु को कहते हैं कि- आर्य क्षेत्र, अच्छे कुल में जन्म, बोधि = सम्यग् दर्शन की प्राप्ति और सर्वविरति इत्यादि की प्राप्ति इस अनादिकाल के संसारचक्र में दुर्लभ है, अत: शुभ सामग्रीवाले इस महान् अवसर को प्राप्त करके धीर पुरुष एक मुहूर्तमात्र भी प्रमाद परवश न हो... छद्मस्थ जीवों का उपयोग अंतर्मुहूर्त का होता है, इसीलिये मुहूर्त कहा, अन्यथा एक समय भी प्रमाद न करें... ऐसा समझना है... कहा भी है कि- हे जीव ! मनुष्य जन्म प्राप्त करके, और संसार की असारता को जानकर भी यह मनुष्य प्रमाद का त्याग करके शांति-मोक्ष के लिये सतत प्रयत्न क्यों नहिं करता ? तथा निश्चित हि यह अति दुर्लभ मनुष्य जन्म, अगाध संसार समुद्र में यदि विनष्ट हुआ तब पुन: यह मनुष्य जन्म जुगनु और बिजली के चमकारे के समान अति दुर्लभ होगा... अब कहतें हैं कि- क्यों प्रमाद न करें ? उत्तर- कुमार आदि उम्र अति शीघ्र बीत जाती है, और यौवन भी अति शीघ्रता से बीत जाता है... "उम्र" कहने से यौवन का भी कथन हो जाता है तो फिर पुनः यौवन का कथन क्यों कीया ? हां, बात ठीक है, किंतु यौवन पद का ग्रहण यौवन प्रधानता बताने के लिये कीया है... क्योंकि- धर्म अर्थ और काम पुरुषार्थ का मुख्य साधन यौवन हि है, और संपूर्ण उम्र में यौवन हि सर्व श्रेष्ठ है, और वह यौवनावस्था अति शीघ्रता से बीत जाती है... कहा भी है कि- नदी के पुर के समान जीवित है, और फुल-पुष्प के समान यौवन है, और विषयभोग अनित्य है... यह तीनो शीघ्रता से नष्ट होते हैं... अत: ऐसा जानकर संयमानुष्ठान के लिये उठना = तत्पर होना हि कल्याणकर है..