SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-2-1-4 (66) 65 %3 साहस नहीं होता और कहे तो भी उसे कुछ सफलता नहि मीलती, इसलिए वह वृद्ध पुरूष उनके चले जाने के बाद उन परिजनोंकी निन्दा करके अपना दिल हल्का कर लेता है। इस तरह पाप में प्रवृत्तहोनेवाला व्यक्ति वृद्धावस्था के आने पर दुःखी हो जाता है और आर्त्त-रौद्र ध्यान में संलग्न होकर संसार को और अधिक बढ़ा लेता है। परन्तु, उस समय उसका कोई संरक्षक नहीं होता। न धन उसका संरक्षण कर सकता है और न परिवार भी। कछ परिजन ऐसे भी मिल सकते हैं कि- वे उसे उपकारी समझकर उसकी सेवा-शुश्रूषा करते हैं, उसे आदर-सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। परन्तु वे भी उसे वृद्वावस्था के दुःखों से बचा नहीं सकते और उसे अपनी शरण में लेकर उस दुःखों से बचा भी नहि सकते हैं। यदि उसे कोई शरण देने वाला है, तो वो है, केवल एक धर्म हि धर्म की शरण में जाने के बाद फिर जरा और मरण का भय सूखने लगता है अर्थात् वह उन दुःखों से मुक्त हो जाता है। इसलिए मुमुक्षु को चाहिए कि- वह धन, यौवन, भोग-विलास एवं परिवार में आसक्त नहीं बने और अपने एवं पारिवारिक भोगोपभोग के लिए रात-दिन पाप कार्यों में प्रवृत्त न रहे। _____ प्रस्तुत सूत्र में अशरण भावना का वर्णन किया गया है। वृद्धावस्था का चित्र चित्रित करके यह बताया गया है कि- संसार में दुःख एवं विपत्ति के समय कोई किसी को शरण नहीं देता। इसलिए व्यक्ति को उस समय आर्त-रौद्र ध्यान में न पड़कर अपने आत्म चिन्तन में लगना चाहिए और वृद्धावस्था में किसी का मुंह देखना न पड़े इसके लिए पहले से ही सावधान होकर धर्म-क्रिया करनी चाहिए, इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि- पाप कार्य से सदा दूर रहना चाहिए, विवेक एवं संयम के साथ-धर्म कार्य करना चाहिए। क्योंकि- संयम एवं धर्म ही सच्चा साथी है, जन्मांतर में सहायक है एवं अंत समय में शरण देने वाला है। ... परन्तु उन धर्मयुक्त व्यक्तियों का जीवन कैसा होना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर में उन के प्रशस्त आचरण का वर्णन सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 4 // // 66 // 1-2-1-4 इच्चेवं समुट्ठिए अहो ! विहाराए अंतरं च खलु इमं संपेहाए धीरे मुहत्तमवि नो पमायए वओ अच्चेति जोव्वणं च // 66 // II संस्कृत-छाया : इति एवं समुत्थाय, अहो ! विहाराय, अन्तरं च खलु इमं संप्रेक्ष्य धीरः मुहर्तमपि न प्रमादयेत्, वयः अत्येति, यौवनं च // 66 //
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy