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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-1-3 (65) 63 तथा व्याधि-रोगों की पीडा से ग्रस्त इस लोक में जिनेश्वरों के वचनों के सिवा (बिना) और कोइ त्राण एवं शरण नहिं है... वह पुरुष उस वृद्धावस्था में कैसा होता है ? तो कहते हैं कि- जरा से जीर्ण शरीरवाला वह वृद्ध पुरुष दुसरों का उपहास नहि कर शकता, क्योंकि- वह खुद हि अन्य लोगों से हास्यास्पद होता है... अन्य लोग उसको प्रत्यक्ष या परोक्ष में कहते हैं कि- हास्यास्पद ऐसे इस वृद्ध के हसने से क्या ? तथा वह वृद्ध पुरुष लंघन = उल्लंघना, वल्गन-कुदके लगाना, आस्फोटन = ताली बजाना इत्यादि क्रीडा के लिये भी योग्य नहि है... और न तो रतिक्रीडा के लिये योग्य है... रति यहां विषयसुख-कामक्रीडा स्वरूप जानीयेगा... और वह ललना = पत्नी के आलिंगन स्वरूप रति है... यदि वृद्ध पुरुष स्त्री के आलिंगन की चाहना रखता है तब पत्नी कहती हैं कि- आपको लाज नहिं आती ? आप आत्मा (खुद) को नहि देखते क्या ? पलित = सफेद बाल स्वरूप राख से घेरे हुए अपने मस्तक को क्या नहि देखते हो ? कि- जो मुझ से आलिंगन चाहते हो... इत्यादि वचनों के पात्र होने से वह वृद्ध पुरुष रति याने क्रामक्रीडे के योग्य नहि होता है... और न तो विभूषा के योग्य होता है... मान लो कि- कभी विभूषा की भी हो तो भी शरीर में फैले हुए चमडी के झुर्रा से (शिकन से) शोभास्पद नहिं होता है... कहा भी है कि- वृद्धावस्था में विभूषा करना योग्य नहिं है, तथा विभ्रम न होने से हसना भी योग्य नहिं... यदि वृद्धावस्था में पुरुष विभूषा करता है और अन्य का उपहास करता है तब वह खुद हि विडंबना पाता है... यौवन वय बीतने पर वृद्ध पुरुष या स्त्री एक सदाचार धर्म के सिवा अन्य जो कुछ भी करता है वह उसे शोभास्पद नहि है... यहां यह अप्रशस्त मूलस्थान का स्वरूप पूर्ण हुआ, अब प्रशस्त मूलस्थान का स्वरूप सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में वृद्धावस्था का सजीव चित्र उपस्थित किया गया है। इस में बताया गया है कि- जीवन सदा एक-सा नहीं रहता है। जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आते रहते हैं और उसमें विभिन्न तरह के अनुभव एवं परिस्थितियां सामने आती हैं। व्यक्ति जिस पर पूरा विश्वास करता था और जिसके लिए अपना धर्म-कर्म भूलाकर सब कुछ करने को तत्पर रहता था, समय आने पर वे लोग किस तरह बदल जाते हैं तथा उनके जीवन व्यवहार को देखकर तथा अपनी अशक्त अवस्था का अवलोकन कर वृद्ध पुरूष के मन में अपने परिजनों के प्रति जो भाव उत्पन्न होते हैं, उनका बहुत ही सुन्दर विश्लेषण प्रस्तुत सूत्र में किया गया है।
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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