________________ 62 1 -2-1-3 (65) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन परीक्षा-वचनों से सत्य तत्त्व को जाना कि- पिताजी वृद्धावस्था के कारण से उचित सेवा होते हुए भी रोतें हैं... उसके बाद पुत्रों ने भी वृद्ध पिताजी की उपेक्षा की = अवगणना की... और यथा समय सेवा करनेवाले अन्य लोगों को भी यह बात कही.... .. अब इस प्रकार पुत्रों से अवगणना पाये हुए एवं पुत्रवधुओं से पराभव पाये हुए तथा परिजनों से भी अपमानित हुए उस वृद्ध पिताजी के साथ कोइ भी स्वजन अच्छी तरह से बात भी नहि करतें... इस प्रकार स्वजनों के बीच वह वृद्ध पिताजी अतिशय कष्टवाली शेष आयुष्य = जीवन अवस्था का अनुभव करता है... इसी प्रकार अन्य प्राणी भी वृद्धावस्था से जीर्ण देहवाला घास के तिनके को भी तोडने में असमर्थ होता हुआ, अपने अपने कार्य में निष्ठ = व्यग्रलोगों से पराभव = तिरस्कार को प्राप्त करते हैं... कहा भी है कि- शरीर संकुचित हुआ, गति, चाल शिथिल हुइ, दांत गिर गये, नजर नष्ट हुइ, देहकांति क्षीण हुइ और मुख से लार (राल) टपकती है, बंधुजन बात भी नहिं करते, पत्नी सेवा नहिं करती और पुत्र भी अवज्ञा = अपमान करतें हैं, अत: वृद्धावस्था से पराभव पाये हुए पुरुष के कष्टों को धिक्कार हो... इस प्रकार जरा = वृद्धावस्था से पराभव पाये हुए पुरुष की अपने स्वजन भी अवगणना करतें हैं और वह वृद्ध पुरुष भी उनकी अवगणना से उनके प्रति विरक्त चित्तवाला होता है और उनके अवर्णवाद बोलता रहता है... यह बात सूत्रके “सो वा" पदसे स्पष्ट करतें हैं, तथा “वा" शब्द पूर्व की अपेक्षा से पक्षांतर को भी बताता है... जैसे कि वे आत्मीय लोग उस वृद्ध की निंदा करतें है, और वृद्धावस्था से जीर्णदेहवाला वह वृद्ध पुरुष भी अपने स्वजनों की अनेक प्रकार के दोषों को प्रगट करने के द्वारा निंदा करता है... अथवा खेद पाता हुआ वह वृद्ध पुरुष उन स्वजनों का पराभव करता है... और जो स्वजन पूर्वकाल में कीये हुए उपकार-धर्म की कृतज्ञता से उस वृद्ध का पराभव तो नहिं करतें, तो भी उस वृद्ध के दुःखों को दूर करने में भी. समर्थ नहिं हो शकतें... इसी लिये तो सूत्र में कहा है कि- वे पुत्र-पुत्री आदि स्वजन लोग भी, हे वृद्ध ! तुम्हारे त्राण एवं शरण के लिये समर्थ नहिं हैं... त्राण याने = आपदा-संकट से बचाने में जो समर्थत वह त्राण... जैसे कि- नदी के बडे प्रवाह में बहते हुए मनुष्य-प्राणी अच्छे कर्णधार (नाविक) वाले जहाज को प्राप्त करके तैरतें हैं वह माण... और शरण याने जिसके आश्रय में निर्भय होकर रह शकतें हैं वह शरण... और वह शरण किल्ला , पर्वत अथवा पुरुष, स्वरूप होता है... .. सारांश यह है कि- जरा याने वृद्धावस्था से पराभव पाये हुए प्राणी को न तो कोई त्राण है, और न तो कोइ शरण है, और तुम भी उस परिवार का न तो त्राण हो, और न तो शरण हो... कहा भी है कि- जन्म, जरा (वृद्धावस्था) और मरण के भय से उपद्रववाले