________________ 卐 1 - 1 - 1 - 1 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 2. लोकविजय नामके द्वितीय अध्ययन में... लोक याने जीव जिस प्रकार आठों कर्मोका बंध करता है... और जिस प्रकार आठों कर्मोसे मुक्त होता है... यह सभी बातें मोहको जीतकर संयममें रहा हुआ साधु अच्छी तरह से जाने... यह ऐसा अर्थाधिकार लोकविजय अध्ययनका है... शीतोष्णीय नामके तृतीय अध्ययन में कहा है कि- चारों कषायोंको जीतकर संयममें रहा हुआ साधु अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्ग तथा क्षुधा-पिपासा आदि 22 परीषहोंको सौम्य भाव से सहन करे... सम्यक्त्व नामके चौथे अध्ययन में कहा है कि- पूर्वोक्त तीनों अध्ययनमें कहे संयमगुणसे संपन्न साधु... तापस आदिको अज्ञान कष्ट-तपश्चर्याके सेवनसे होनेवाले पौद्गलिक आठ सिद्धिओंके गुण एवं ऐश्वर्यको देखकर संमोहित न हो. . किंतु सम्यग्दर्शनको दृढ करें... लोकसार नामके पांचवे अध्ययन में कहा है कि- पूर्वोक्त चारों अध्ययनार्थसे संपन्न साधु... पौद्गलिक असार समृद्धिका त्याग करके लोकमें सार स्वरूप ज्ञानादि तीन रत्नोंमें सदैव उपयोगवाला रहे... 6. धूत नामके छठे अध्ययन में कहा है कि- पूवोक्त 1 से पांच अध्ययनोंके अर्थमें सावधान ऐसा साधु... निःसंग एवं अप्रतिबद्ध रूप से रहे... 7. महापरिज्ञा नामके सातवे अध्ययन में कहा है कि- संयमगुणमें रहा हुआ साधु... जब कभी भी परीषह एवं उपसर्गोंका प्रसंग उपस्थित हो तब सावधानी से कर्मनिर्जराकी शुभ दृष्टिसे उन्हें सहन करें.... विमोक्ष नामके आठवे अध्ययन में कहा है कि- पूर्वोक्त सर्व गुण युक्त ऐसा साधु... अच्छी तरहसे निर्याण = निर्वाण पद प्राप्त हो शके ऐसी अंतक्रिया = संलेखना करे... उपधानश्रुत नामके नववे अध्ययन में कहते हैं कि- पूर्वोक्त आठों अध्ययनों में कहे गये अर्थ याने संयमगुणको श्री महावीर प्रभुने पूर्ण रूप से आत्मसात् किया है... ऐसा कहकर यह कहना चाहते हैं कि- सभी साधु सदैव हि उत्साह के साथ पंचाचारका आदर करें.... जब चार ज्ञानवाले, देवोंसे पूजित, एवं निश्चित रूपसे मोक्ष पद पानेवाले तीर्थंकर प्रभु . भी छग्रस्थ अवस्थामें सभी बल एवं पुरुषार्थके साथ सामायिक चारित्रमें उद्यम करते हैं... तब अनेक उपद्रववाले मनुष्य जन्ममें परम पुरुषार्थ से साधु जीवनको पाकर सफल दुःखोंके क्षयमें कारणभूत संयम-चारित्रमें सुविहित साधुओंको क्या उद्यम नहिं करना चाहिये ?