________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका ॐ 1-1-1-1 // %3 ___ यहां सारांश यह है कि- केवलज्ञान-गम्य अप्रज्ञापनीय पर्यायोंको उसमें प्रक्षेप करनेसे बहुत्व याने वे पर्याय बहोत सारे हुए... इसी प्रकार भी ज्ञान और ज्ञेयकी तुल्यताके कारणसे भी वे दोनों परस्पर तुल्य है अतः अनन्तगुण नहि है... यहां आचार्य कहतें हैं कि- जो यहां संयमस्थान श्रेणी कही वे सभी ज्ञान-दर्शनके पर्यायोंके साथ चारित्र पर्यायोंसे परिपूर्ण है अत: तत्प्रमाण याने सर्व आकाश प्रदेशोंसे अनंतगुण है... और यहां इस ग्रंथमें तो मात्र चारित्रमें उपयोगी होने से पर्यायोंके अनंतवे भागमें व्रतोंका रहना युक्ति युक्त हि है... ऐसा कहनेमें कोई दोष नहि है... अब “सार" द्वार को कहते हैं... किसका क्या सार है ? नि. 16 द्वादशांगीका सार है आचार... आचार का सार है अनुयोग... अनुयोग का सार है प्ररूपणा = व्याख्यान... नि. 17 प्ररूपणाका सार है। चारित्र चारित्र का सार है निर्वाण (मोक्ष) मोक्ष याने निर्वाणका सार है अव्यबाध सुख... यह सभी बातें जिनेश्वरोंने कही है. अब "श्रुत' एवं "स्कंध' पदके नामादि निक्षेप पूर्वकी तरह स्वयं हि करें... यहां भावश्रुतस्कन्ध ब्रह्मचर्यका अधिकार है, अतः ब्रह्म एवं चरण पदका निक्षेप कहते हैं... नि. 18 "ब्रह्म' पद के नामादि चार निक्षेप... नाम ब्रह्म... = "ब्रह्म' ऐसा कीसीका भी नाम... 2. असद्भाव स्थापना ब्रह्म... अक्ष आदिमें... 3. . सद्भाव स्थापना ब्रह्म... यज्ञोपवीतादि युक्त ब्राह्मणकी आकृति... चित्र या प्रतिमा... अथवा स्थापना ब्रह्म - ब्राह्मणोंकी उत्पत्तिका व्याख्यान यहां प्रासंगिक 7 वर्ण एवं 9 वर्णातरोंकी उत्पत्ति कहते हैं... नि. 19 जब तक भगवान ऋषभदेव राजलक्ष्मीके पद स्वरूप राजा नहि बने थे तब तक