________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 7 - 1 (56) 289 2. मण्डलिका- वातोली = वायुकी आली = मंडल स्वरूप गुंजा- जो पवन भंभाकी तरह गुंजता हुआ चलता है उस वायुको गुंजावात कहतें हैं घनवात- हिम-बरफ के पटल = पडकी तरह रहा हुआ और पृथ्वी आदिके आधार स्वरूप जो अत्यंत घन वायु है वह घनवात... शुद्धवात- "थोडा स्थिर" ऐसा शीतकालादिमें जो वायु होता है उसे शुद्धवात कहतें हैं... तथा पण्णवणा सूत्रमें, जो पूर्व आदि दिशाके वायु कहे गये है, उन सभी का इन पांच प्रकारमें यथायोग्य अंतर्भाव होता है... इस प्रकार बादर वायुकायके पांच भेद कहे, अब लक्षण द्वार कहतें हैं... नि. 167 जिस प्रकार देवका दिव्य शरीर आंखोसे नहिं देखे जाते फिर भी वे सचेतन हैं ऐसा हम मानतें हैं... और देव अपनी शक्ति-प्रभावसे ऐसे वैक्रिय रूपको धारण करतें हैं, कि- जो आंखोसे देख नहिं शकतें..: और हम ऐसा भी नहिं कह शकतें कि वे नहिं है अथवा अचेतन हैं, बस / इसी प्रकार वायु भी आंखोसे नहिं देखा जाता, फिर भी वह है और सचेतन है... - अथवा तो मनुष्य अंजनविद्या या मंत्रके प्रभावसे अद्रश्य होता है तब उसका अभाव नहिं होता, और वह अचेतन भी नहिं बनता... यही उपमा वायुमें भी समझ लीजीयेगा... और असत् शब्द यहां अभाव सूचक नहिं है किंतु वायुमें आंखे देख शके ऐसा रूप नहिं है... इस अर्थको * 'प्रगट करता है... परमाणु की तरह वायुका सूक्ष्म परिणाम होनेसे वायुको आंखें ग्रहण नहि कर शकती... किंतु वायु स्पर्श, रस एवं रूपवाला होता है, जब कि- अन्य मतवाले वायुको मात्र स्पर्शवाला हि मानतें हैं... प्रयोग- नावाला है, क्योंकि- गाय, घोडे आदिकी तरह अन्यकी प्रेरणासे तिरछी एवं अनियमितगतिवाले हैं... इस प्रयोग से यह निश्चित हुआ कि- घनवात, शुद्धवायु आदि भेदवाला वायु, जब तक शस्त्रसे उपहत न हो, तब तक वायु चेतनावाला सचित्त है, ऐसा जानीयेगा... अब परिमाण द्वार कहतें हैं... नि. 168 बादर पर्याप्त वायुकाय - धनीकृत लोकाकाशके प्रतरके असंख्येय भागमें रहे हुए