________________ 288 // 1-1-7-1(56) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 7 # वायुकायम छठा उद्देशक कहा अब सातवें उद्देशकका आरंभ करतें हैं... इस उद्देशकमें वायुकायका अधिकार है... वायुकाय आंखोसे दिखता नहिं है और उपभोग भी अल्प है, इसलिये मंदबुद्धिवाले जीवों को श्रद्धा होनी मुश्केल है, अतः उत्क्रमसे आये हुए वायुकायका स्वरूप, यथाक्रम अग्निकायके बाद कहनेके बजाय सकायके बाद कहतें हैं.... ___ इस संबंधसे आये हुए इस सातवे उद्देशकके उपक्रम आदि चार अनुयोग द्वार कहना चाहिये और वे नामनिष्पन्न निक्षेप तक पूर्ववत् समझीयेगा... नामनिष्पन्न निक्षेपमें वायु-उद्देशक पद है... अब वायुके स्वरूपका निरूपण करनेके लिये कितनेक द्वारोंके अतिदेश (भलामण) के साथ नियुक्तिकार कहतें हैं... नि. 164 पृथ्वीकायके अधिकारमें कहे गये सभी द्वार वायुकायमें भी समझीयेगा... किंतु- विधान (भेद) परिमाण, उपभोग, शस्त्र और लक्षण द्वारमें जो विशेष बात है वह कहतें हैं... विधान (भेद) का स्वरूप कहतें हैं... नि. 165 वायुकायके जीवोंके मुख्य दो भेद हैं... 1. सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे सूक्ष्म वायुकाय जीव 2. बादर नामकर्मके उदयसे बादर वायुकाय जीव सूक्ष्म वायुकाय जीव संपूर्ण लोकमें, सभी खिडकीयां और दरवाजे बंध करनेसे घरमें भरे हुए धूमाडे की तरह रहे हुए है... और बादर वायुकायके पांच भेद हैं जो आगेकी गाथासे कह रहे हैं... नि. 166 1. उत्कलिका- थोडी देर रह रह कर जो पवन वाता है वह उत्कलिका-वात .