SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 276 // 1-1-6-3 (51) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सतत प्राणोंको धारण करने से तीनों कालमें विद्यमान होनेसे तीनों कालमें जीवन धारण करनेसे हमेशां विद्यमान होनेसे प्राणी... भूत... जीव... सत्त्व ... इस प्रकार चिंतन करके एवं देखकरके जानियेगा कि- सभी जीवोंको अपरिनिर्वाण स्वरूप असाता हि महाभय है और दुःख है.. जो पीडा दे वह दुःख... असाता-वेदनीयकर्मका विपाक-फल वह असाता... चारों और से परिनिर्वाण = सुख न हो वह अपरिनिर्वाण... अर्थात् चारों और से शारीरिक एवं मानसिक पीडा... महान् = सबसे बडा भय वह महाभय- कि- जिससे बडा भय जीवको और कोइ नहिं है... इस प्रकार- इस विश्वमें सभी संसारी जीव शारीरिक एवं मानसिक दुःखोंसे पीडित है, यह बात परमात्मासे जानकर, मैं आपको कहता हूं.... ____ मैं कहता हूं कि- असाता आदि विशेषणवाले दुःखोंसे जिनके प्राण उद्वेग = त्रास पातें हैं ऐसे जीव = प्राणी त्रास पाकर प्रज्ञापक - अपेक्षासे एक दिशा (जन्म) से मरण प्राप्त करके अन्य पूर्व आदि दिशाओंमें उत्पन्न होतें (जन्म लेतें) हैं... ऐसा कोइ जीव नहिं है कि- जो त्रास पाकर एक दिशासे अन्य शेष सभी दिशाओंमें घुमता न हो... मकडी (करोडीया) जिस प्रकार चारों औरसे भय प्राप्त डरके कारणसे, आत्म-संरक्षणके लिये जाला बनाकरके सुरक्षित रहना चाहता हैं... भाव दिशा (नरक आदि 18 भाव दिशा) भी कोई ऐसी नहिं है कि- जहां रहा हुआ जंतु त्रास पाता न हो... नरक आदि चारों गतिमें रहे हुए सभी जीव, शारीरिक एवं मानसिक दुःखोंसे त्रास पाकर पीडा पाते हुए मरतें हैं... इस प्रकार सभी दिशा और विदिशाओंमें त्रस जीव हैं... और वे दिशा और विदिशाओंमें त्रास पातें रहतें हैं... क्योंकि- त्रसजीवोंके आरंभ करनेवाले मनुष्य त्रस जीवोंका वध करतें हैं.. प्रश्न- ऐसा क्या कारण है ? कि- मनुष्य, स जीवों का वध करे ? इस प्रश्न का उत्तर, सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : संसार में प्रत्येक प्राणी सुखाभिलाषी है, दुःख से बचना चाहता है / फिर भी अपने कृत कर्मक अनुसार सुख-दुःखका स्वयं उपभोक्ता है / दुनिया में कोई प्राणी ऐसा नहीं है, जो एक के सुख-दुःख को दूसरा व्यक्ति भोग सके / सभी प्राणी अपने कृत कर्मके अनुरूप ही सुख-दुःख का संवेदन करते हैं / परन्तु अंतर इतना ही है कि सुख संवेदन की अभिलाषा सबको रहती है / सुख सभी प्राणियोंको प्रिय लगता है, आनन्द देनेवाला प्रतीत होता है, और
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy