________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1-6-4 (52) 277 दुःख कटु प्रतीत होता है / इस लिए दुनिया का कोई भी प्राणी दुःख नहीं चाहता, वह दुःख से घबराता है, भयभीत होता है / फिर भी प्राणी दुःखसे संतप्त एवं संत्रस्त होते हैं / सभी दिशा-विदिशाओंमें ऐसा कोई स्थान नहीं, जहां उन्हें दुःख का संवेदन न होता हो। ___ प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त प्राण, भूत, जीव और सत्त्व सामान्यतः जीव के संसूचक हैं / निरन्तर प्राण के धारक होने के कारण प्राण, तीनों काल में रहने के कारण भूत, तीनों काल में जीवन युक्त होने से जीव और पर्यायों का परिवर्तन होने पर भी त्रिकालमें आत्मद्रव्य की सत्ता में अंतर नहीं आता, इस दृष्टि से सत्त्व कहलाता है इस अपेक्षा से सभी शब्द जीव के ही परिचायक हैं / इस तरह समभिरूढनय की अपेक्षा से इनमें भेद परिलक्षित होता है / ___ इन सबमें थोड़ा भेद भी है, वह यह है-प्राण से तीन विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय प्राणी लिए हैं, भूत से वनस्पतिकायिक जीवों को लिया जाता है, जीव से पञ्चेन्द्रिय देव, नारक, तिर्यञ्च एवं मनुष्यों का ग्रहण किया जाता है और सत्त्व से पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायुकाय को लिया जाता है / __ “परिनिर्वाण' शब्द का अर्थ सुख है, इस दृष्टि से अपरिनिर्वाण का अर्थ दुःख होता : है / और दिशा-विदिशा से द्रव्य और भाव उभय दिशाओं का ग्रहण करना चाहिए / इससे स्पष्ट हो गया कि प्रत्येक जीव सुख चाहता है और दुःख नहीं चाहता / फिर भी विभिन्न दुःखोंका संवेदन करता है / इसका कारण यह है कि वह विविध आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होकर कर्म बन्धनसे आबद्ध होकर दुःखोंका संवेदन करता है / परन्तु जीव आरम्भसमारम्भ-हिंसा के कार्य में क्यों प्रवृत्त होता है ? इसका कारण, सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे.... I सूत्र // 4 // // 52 // तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा पारितावंति / संति पाणा पुढो सिया // 52 // . II संस्कृत-छाया : तत्र तत्र पृथक् पश्य, आतुराः परितापयन्ति, सन्ति प्राणिनः पृथक् श्रिताः // 52 // III शब्दार्थ : तत्थ-तत्थ-उन-उन कारणों में / पुढो-विभिन्न प्रयोजनों के लिए / पास-हे शिष्य ! तू देख / आतुरा-विषयों में आतुर-अस्वस्थ मन वाले जीव / परितावंति-अन्य जीवों को परिताप देते हैं-दुःखों से पीड़ित करते हैं, किन्तु / पाणा-प्राणी / पुदो-पृथक्-पृथक् / सियापृथ्वी, जल, वायु आदि के आश्रित / संति-विद्यमान हैं /