________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1-6-3 (51) // 275 सर्व भूतों को / सव्वेसिं जीवाणं-सर्व जीवों को / सव्वेसिं सत्ताणं-सर्व सत्त्वों को / अस्सायंअसाता / अपरिनिव्वाणं-अशांति / महब्भयं-महाभय है / दुक्खं-दुःख रूप है / तिबेमिइस प्रकार मैं कहता हूं / दिसासु-दिशाओं में / य-और / पदिसो-विदिशाओं में / पाणायह प्राणी। तसंति-पास को प्राप्त करतें हैं / IV सूत्रार्थ : विचार कर एवं देखकर, हर एक जीव अपना अपना सुख भुगतते हैं... सभी प्राणी, सभी भूत, सभी जीव एवं सभी सत्त्व... को असाता- दुःख एवं अपरिनिर्वाण महाभय तथा दुःख है... ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हुं... और जीवों एक दिशासे अन्य दिशाओंमें श्रास पातें हैं... // 11 // v टीका-अनुवाद : इस प्रकार यह आबालगोपाल प्रसिद्ध त्रसकाय जीवोंको मनसे शोच-विचार कर एवं आंखोसे देखकर ऐसा लगता है, कि- सभी जीवों अपने अपने परिनिर्वाण स्वरूप सुखको चाहतें हैं... अन्य जीवके सुखको अन्य जीव नहि भुगतता... और यह बात सभी जीवोंमें एक समान हि लागु पडती है... वह इस प्रकार 1. सभी प्राणी - बेइंद्रिय तेइंद्रिय एवं चउरिंद्रिय जीव... सभी भूत = प्रत्येक एवं साधारण तथा सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त वनस्पतिकाय... सभी जीव- गर्भज एवं संमूर्छिम पंचेंद्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य और देव तथा नारक... सभी सत्त्व- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय तथा वायुकाव जीव... यहां प्राणी - भूत - जीव और सत्त्व यह चारों शब्द, जीवके हि वाचक है, तो भी उपर कहे गये विधानसे संसारी जीवों के चार प्रकार लिखे गये हैं... कहा भी है कि भूत... दो, ती, चार इंद्रियवाले जीव... प्राणी... सभी प्रकारके वनस्पतिकाय... पंचेंद्रिय जीव जीव... पृथ्वी, पाणी, अग्नि एवं वायुजीव - सत्त्व... कहे गये है... अथवा तो शब्दके व्यत्पत्ति-अर्थको ग्रहण करनेवाले समभिरूढ-नयके मतसे जो भेद है वह कहतें हैं...