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________________ 266 // 1-1-6-1 (49) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कहा भी है कि- हे भगवन् ! वर्तमान कालमें रहे हुए असकाय जीव कितने कालमें निर्लेप (खाली) हो ? हे गौतम ! कमसे कम सागरोपम पृथक्त्व और अधिकसे अधिक सागरोपम-लक्ष-पृथक्त्व... * उद्वर्तन याने निष्क्रमण = मरण और उपपात याने प्रवेश = जन्म... त्रसकाय जीव कमसे कम- एक, दो, तीन उत्पन्न होतें हैं... और अधिकसे अधिकप्रतरके असंख्येय भाग प्रदेशकी संख्या प्रमाण असंख्य उत्पन्न होते हैं... अब निरंतर प्रवेश एवं निर्गम की संख्या कहतें हैं... नि. 159 जघन्यसे त्रसकायमें निरंतर एक, दो या तीन जीव उत्पन्न होतें हैं और मरण पातें हैं... उत्कृष्टसे उसकायमें आवलिकाके असंख्येय भागके समय प्रमाण असंख्य उत्पन्न होतें हैं और मरण पातें हैं... एक जीवकी अपेक्षासे त्रसकायमें निरंतर रहनेका काल... जघन्यसे - अंतर्मुहूर्त काल... अर्थात् अंतर्मुहूर्त कालके बाद मरण पाकर पृथ्वीकाय आदि एकेंद्रियमें उत्पन्न होता है... उत्कृष्ट से- दो हजार सागरोपम काल... अर्थात् एक जीव अधिकसे अधिक त्रसकायमें दो हजार सागरोपम काल पर्यंत जन्म-मरण करता हुआ रहता हैं, यदि इतने कालमें वह जीव मोक्ष-पद प्राप्त न करे, तब पुनः स्थावर याने एकेन्द्रियमें अवस्य उत्पन्न होता हैं... * प्रमाण द्वार कहा, अब उपभोग, शस्त्र और वेदना यह तीन द्वारका स्वरूप कहतें हैं... नि. 160 उपभोग- मांस, चमडा, केश, रोम, नख, पिच्छा, दांत, स्नायु, हड्डी, शींगडे, आदि सजीव या निर्जीव उसकायका उपभोग है... शस्त्र- खड्ग (तरवार), तोमर (लोहेका डंडा, भाला) छुरी आदि... तथा जल, अग्नि, आदि अनेक प्रकारके स्वकाय, परकाय एवं उभयकाय स्वरूप अनेक प्रकारके शस्त्र, सकायके विनाशक होतें हैं... वेदना- वेदनाके दो प्रकार है... 1. शरीरमें होनेवाली 2. मनमें होनेवाली 1. शरीरकी वेदना - शल्य तथा शलाका आदिके द्वारा छेदन भेदन से होनेवाली वेदना 3.
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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