________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 6 - 1 (49) 265 लब्धि- विविध प्रकारकी औदयिक लब्धियां क्षीराश्रव, मध्वाश्रव आदि... यह लब्धियां ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मकी स्वशक्तिके परिणाम स्वरूप है... 10. लेश्या- कृष्ण नील कापोतलेश्या... अशुभ है... तेजो पद्म शुक्ललेश्या... शुभ है... यह लेश्या कषाय एवं योगके परिणामसे होती है... संज्ञा... आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह स्वरूप चार संज्ञाएं... अथवा दश संज्ञा... उपर कही चार एवं क्रोधादि चार तथा ओघसंज्ञा एवं लोकसंज्ञा... 12. श्वासोच्छ्वास = प्राण = श्वास लेना और छोडना... 13. कषाय = कष याने संसार और आय याने लाभ... और वे कषाय अनंतानुबंधि आदि भेदोंसे सोलह (16) प्रकारसे है... एकेन्द्रिय जीवों के लक्षण पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय के वर्णनमें कह चुके हैं, अतः इन दो गाथाओंमें कहे गये तेरह (13) लक्षण बेइंद्रिय आदि अस जीवोंके हैं... ऐसे लक्षणोंका समूह, घट - वस्त्र आदिमें नहिं है, अतः वे घट-पट-आदि अचेतन हैं... अब लक्षण द्वाराका उपसंहार तथा परिमाण द्वारके कथनके लिये नियुक्तिकार कहतें हैं कि नि. 158 बेइंद्रिय आदि उस जीवोंमें उपर कहे गये दर्शन आदि तेरह (13) लक्षण परिपूर्ण है, अर्थात इनसे अधिक और कोई लक्षण नहिं हैं..... * अब परिमाण = संख्या कहतें हैं... (1) क्षेत्रकी दृष्टि से घनीकृत लोकाकाशके प्रतरके असंख्येय भागमें रहे हुए प्रदेशोंकी राशि = संख्या प्रमाण पर्याप्त प्रसकाय जीव हैं... और वे पर्याप्त बादर तेउकाय (अग्नि) से असंख्यगुण अधिक हैं... (2) पर्याप्त सकाय जीवोंसे अपर्याप्त सकाय जीव असंख्यगुण अधिक हैं तथा कालकी दृष्टिसे- वर्तमानकालमें कमसे कम सागरोपम पृथक्त्व (2 से 9 सागरोपम) के समयकी राशि = संख्या प्रमाण त्रसकाय जीव होतें हैं और अधिकसे अधिक- लाख सागरोपम पृथक्त्व (2 लाखसे 9 लाख सागरोपम) के समयकी राशि प्रमाण होतें हैं...