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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1-5-8 (47) // 253 दिखाई देता है वैसे हि वनस्पति-शरीर भी... वह इस प्रकार- केतकीका वृक्ष बाल, युवा एवं वृद्ध होता है... अतः दोनोंमें समानता होनेसे वनस्पति-शरीर भी उत्पत्ति धर्मवाला है... प्रश्न- उत्पत्ति धर्मवाला होने पर भी मनुष्य आदिका शरीर सचेतन है, वैसा वनस्पति-शरीर नहिं है... क्योंकि- उत्पत्ति धर्म तो केश (बाल), नख, दांत आदिमें भी है... लक्षण सदैव निर्दोष होना चाहिये... इसलिये उत्पत्ति धर्म हि जीवका चिह्न कहना युक्तियुक्त नहिं है... उत्तर- आपकी बात सही है... केवल उत्पत्ति कहें तब... किंतु मनुष्य शरीरमें प्रसिद्ध ऐसे बाल, कुमार आदि अवस्था की उत्पत्तिके समान उत्पत्ति, केश आदिमें स्पष्ट नहिं है... इसीलिये आपकी बात अयोग्य है... और केश, नख भी सचेतन शरीरमें हि उत्पन्न होतें हैं अथवा बढतें है... और आप तो वनस्पति-वृक्षको सचेतन मानते नहि हो, अतः आपके मतके अनुसार पृथ्वी आदि अचेतन है, इसलिये आपकी बात युक्तियुक्त नहिं है... अथवा सूत्रमें कहे गये जाति (उत्पत्ति) धर्म आदिका एक हि हेतु है, अलग अलग हेतु नहिं है, और केश आदिमें समुदाय-हेतु नहिं है अतः दोष नहिं है... तथा जिस प्रकार यह मनुष्यका शरीर निरंतर (सदैव) बाल, कुमार आदि अवस्थाओंसे वृद्धि पाता (बढता) है. वैसे हि वह वनस्पति-शरीर भी अंकुर, किशलय (कुंपल) शाखा (डाली) प्रशाखा (छोटी डाली) आदि प्रकारसे बढ़ता है... और जिस प्रकार यह मनुष्यका शरीर सचेतन है, वैसे हि वह वनस्पति शरीर भी सेचतन है... कैसे ? तो- सुनो ! जिसमें चेतना हो वह चित्त याने ज्ञान... जिस प्रकार मनुष्यका शरीर ज्ञानसे युक्त है, वैसे हि वनस्पति-शरीर भी... वह इस प्रकार धात्री (आंवलेका वृक्ष), प्रपुन्नाट = चक्रमर्द नामका वृक्ष आदिमें सोना (निद्रा) और जगना (निद्रात्याग) का सद्भाव दिखता है... तथा भूमिमें रखे हुए द्रविण (धन) के ढेरको अपने जड-मूलिये से घेरके रहना, वर्षाकी जलधाराके आवाज एवं शिशिर = ठंडे पवनके स्पर्शसे अंकुरका निकलना (उगना) तथा मस्ती एवं कामविकारोंके साथ स्खलना (लडथडती) पाती हुइ गति (चाल) से चकर-वकर (चंचल) आंखोवाली विलासिनी-स्त्रीके नूपुर (झांझर-पायजेब) वाले पाउं (चरण) से ताडित (स्पर्श कीये हुए) अशोक वृक्षों पल्लव (पत्ते) एवं कुसुम (फुल) की उत्पत्ति होती है... तथा सुगंधि मुंहभर (कवल) की पीचकारीसे (मदिराकी धारासे) बकुलमें स्पष्ट हि अंकुरित याने नये कुंपल उत्पन्न होना, और हाथ आदिके स्पर्शसे बकुलमें संकोच आदि क्रिया स्पष्ट हि दिखती है... यह कहे गये अशोक आदि वृक्षोंकी क्रिया-चेष्टाएं ज्ञानके बिना नहिं हो शकती, अतः वनस्पतिका सचेतन-पना सिद्ध हुआ... तथा जिस प्रकार यह मनुष्यका शरीर अंगोपांग हाथ आदिके कट जाने (छेदने) से मुरझाता (करमाता) है. वैसे हि वनस्पति-शरीर भी पत्ते, फल, फुल आदिके छेदनेसे मुरझाता
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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